बुधवार, 30 दिसंबर 2009
नव वर्ष पर नवगीत: महाकाल के महाग्रंथ का --संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ?
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
**********************
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सोमवार, 28 दिसंबर 2009
सामयिक दोहे संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूंढ-ढूंढ हरा, घर एक नहीं मिलता..
रश्मि रथी की रश्मि के दर्शन कर जग धन्य.
तुम्हीं चन्द्र की ज्योत्सना, सचमुच दिव्य अनन्य..
राज सियारों का हुआ, सिंह का मिटा भविष्य.
लोकतंत्र के यज्ञ में, काबिल हुआ हविष्य..
कहता है इतिहास यह, राक्षस थे बलवान.
जिसने उनको मिटाया, वे सब थे इंसान..
इस राक्षस राठोड का होगा सत्यानाश.
साक्षी होंगे आप-हम, धरती जल आकाश..
नारायण के नाम पर, सचमुच लगा कलंक.
मैली चादर हो गयी, चुभा कुयश का डंक..
फंसे वासना पंक में, श्री नारायण दत्त.
जैसे मरने जा रहा, कीचड में गज मत्त.
कीचड में गज मत्त, लाज क्यों इन्हें न आयी.
कभी उठाई थी चप्पल. अब चप्पल खाई..
******************
Acharya Sanjiv Salil
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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
'बड़ा दिन' --संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
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बुधवार, 23 दिसंबर 2009
स्मृति दीर्घा: संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
***********
मंगलवार, 22 दिसंबर 2009
दोहा गीतिका 'सलिल'
दोहा गीतिका
'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?
बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।
फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।
हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।
सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।
हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।
हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।
तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..
मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
एक अगीत: बिक रहा ईमान है _संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
बिक रहा ईमान है
कौन कहता है कि...
मंहगाई अधिक है?
बहुत सस्ता
बिक रहा ईमान है.
जहाँ जाओगे
सहज ही देख लोगे.
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है.
कहो जनमत का
यहाँ कुछ मोल है?
नहीं, देखो जहाँ
भारी पोल है.
कर रहा है न्याय
अंधा ले तराजू.
व्यवस्था में हर कहीं
बस झोल है.
आँख का आँसू,
हृदय की भावनाएँ.
हौसला अरमान सपने
समर्पण की कामनाएँ.
देश-भक्ति, त्याग को
किस मोल लोगे?
कहो इबादत को
कैसे तौल लोगे?
आँख के आँसू,
हया लज्जा शरम.
मुफ्त बिकते
कहो सच है या भरम?
क्या कभी इससे सस्ते
बिक़े होंगे मूल्य.
बिक रहे हैं
आज जो निर्मूल्य?
मौन हो अर्थात
सहमत बात से हो.
मान लेता हूँ कि
आदम जात से हो.
जात औ' औकात निज
बिकने न देना.
मुनाफाखोरों को
अब टिकने न देना.
भाव जिनके अधिक हैं
उनको घटाओ.
और जो बेभाव हैं
उनको बढाओ.
****************
गीत: एक कोना कहीं घर में -संजीव 'सलिल'
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.
बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.
निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.
बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.
कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.
देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.
स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.
पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.
याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.
आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.
स्वप्न में देखूं तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009
नव गीत: अवध तन, /मन राम हो... संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
अवध तन,
मन राम हो...
*
आस्था सीता का
संशय का दशानन.
हरण करता है
न तुम चुपचाप हो.
बावरी मस्जिद
सुनहरा मृग- छलावा.
मिटाना इसको कहो
क्यों पाप हो?
उचित छल को जीत
छल से मौन रहना.
उचित करना काम
पर निष्काम हो.
अवध तन,
मन राम हो...
*
दगा के बदले
दगा ने दगा पाई.
बुराई से निबटती
यूँ ही बुराई.
चाहते हो तुम
मगर संभव न ऐसा-
बुराई के हाथ
पिटती हो बुराई.
जब दिखे अंधेर
तब मत देर करना
ढेर करना अनय
कुछ अंजाम हो.
अवध तन,
मन राम हो...
*
किया तुमने वह
लगा जो उचित तुमको.
ढहाया ढाँचा
मिटाया क्रूर भ्रम को.
आज फिर संकोच क्यों?
निर्द्वंद बोलो-
सफल कोशिश करी
हरने दीर्घ तम को.
सजा या ईनाम का
भय-लोभ क्यों हो?
फ़िक्र क्यों अनुकूल कुछ
या वाम हो?
अवध तन,
मन राम हो...
*
बुधवार, 9 दिसंबर 2009
भजन: सुन लो विनय गजानन संजीव 'सलिल'
सुन लो विनय गजानन
संजीव 'सलिल'
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..
*
सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी.
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
शनिवार, 5 दिसंबर 2009
नवगीत: मौन निहारो... संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
पर्वत-शिखरों पर जब जाओ,
स्नेहपूर्वक छू सहलाओ.
हर उभार पर, हर चढाव पर-
ठिठको, गीत प्रेम के गाओ.
स्पर्शों की संवेदन-सिहरन
चुप अनुभव कर निज मन वारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
जब-जब तुम समतल पर चलना,
तनिक सम्हलना, अधिक फिसलना.
उषा सुनहली, शाम नशीली-
शशि-रजनी को देख मचलना.
मन से तन का, तन से मन का-
दरस करो, आरती उतारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
घटी-गव्ह्रों में यदि उतरो,
कण-कण, तृण-तृण चूमो-बिखरो.
चन्द्र-ज्योत्सना, सूर्य-रश्मि को
खोजो, पाओ, खुश हो निखरो.
नेह-नर्मदा में अवगाहन-
करो 'सलिल' पी कहाँ पुकारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
नवगीत: डर लगता है --संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
डर लगता है
आँख खोलते...
*
कालिख हावी है
उजास पर.
जयी न कोशिश
क्षुधा-प्यास पर.
रुदन हँस रहा
त्रस्त हास पर.
आम प्रताड़ित
मस्त खास पर.
डर लगता है
बोल बोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
लूट फूल को
शूल रहा है.
गरल अमिय को
भूल रहा है.
राग- द्वेष का
मूल रहा है.
सर्प दर्प का
झूल रहा है.
डर लगता है
पोल खोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
आसमान में
तूफाँ छाया.
कर्कश स्वर में
उल्लू गाया.
मन ने तन को
है भरमाया.
काया का
गायब है साया.
डर लगता है
पंख तोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
नव गीत: सागर उथला / पर्वत गहरा... --संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही.
सौ पाए तो हैं अयोग्य,
दस पायें वाहा-वाही.
नाली का
पानी बहता है,
नदिया का
जल ठहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र.
सत्य-असत्य न जानें-मानें,
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.
बहस कर रहा
है वकील
न्यायालय
गूंगा-बहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
मना-मनाकर भारत हारा,
लेकिन पाक न माने.
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का
जाना नहीं
ककहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
नवगीत: काया माटी / माया माटी
संजीव 'सलिल'
काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी,कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*
मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...
*
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
नवगीत: पलक बिछाए / राह हेरते...
आचार्य संजीव 'सलिल'
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
जनगण स्वामी
खड़ा सड़क पर.
जनसेवक
जा रहा झिड़ककर.
लट्ठ पटकती
पुलिस अकड़कर.
अधिकारी
गुर्राये भड़ककर.
आम आदमी
ट्रस्ट-टेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
लोभ,
लोक-आराध्य हुआ है.
प्रजातंत्र का
मंत्र जुआ है.
'जय नेता की'
करे सुआ है.
अंत न मालुम
अंध कुआ है.
अन्यायी मिल
मार-घेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
मुंह में राम
बगल में छूरी.
त्याग त्याज्य
आराम जरूरी.
जपना राम
हुई मजबूरी.
जितनी गाथा
कहो अधूरी.
अपने सपने
'सलिल' पेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
नवगीत: जब तक कुर्सी/तब तक ठाठ...
आचार्य संजीव 'सलिल'
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
नाच जमूरा,
नचा मदारी.
सत्ता भोग,
करा बेगारी.
कोइ किसी का
सगा नहीं है.
स्वार्थ साधने
करते यारी.
फूँको नैतिकता
ले काठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
बेच-खरीदो
रोज देश को.
अस्ध्य मान लो
सिर्फ ऐश को.
वादों का क्या
किया-भुलाया.
लूट-दबाओ
स्वर्ण-कैश को.
झूठ आचरण
सच का पाठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
मन पर तन ने
राज किया है.
बिजली गायब
बुझा दिया है.
सच्चाई को
छिपा रहे हैं.
भाई-चारा
निभा रहे हैं.
सोलह कहो
भले हो साठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
बुधवार, 25 नवंबर 2009
स्मृति गीत: तुम जाकर भी गयी नहीं हो...
पूज्य मातुश्री स्व. शांतिदेवी की प्रथम बरसी पर-
संजीव 'सलिल'
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
बरस हो गया
तुम्हें न देखा.
मिति न किंचित
स्मृति रेखा.
प्रतिदिन लगता
टेर रही हो.
देर हुई, पथ
हेर रही हो.
गोदी ले
मुझको दुलरातीं.
मैया मेरी
बसी यहीं हो.
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
सच घुटने में
पीर बहुत थी.
लेकिन तुममें
धीर बहुत थी.
डगर-मगर उस
भोर नहाया.
प्रभु को जी भर
भोग लगाया.
खाई न औषधि
धरे कहीं हो.
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
गिरी, कँपा
सारा भू मंडल.
युग सम बीता
पखवाडा-पल.
आँख बोलती
जिव्हा चुप्प थी.
जीवन आशा
हुई गुप्प थी.
नहीं रहीं पर
रहीं यहीं हो
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
मंगलवार, 24 नवंबर 2009
शोकगीत: नाथ मुझे क्यों / किया अनाथ?
नाथ मुझे क्यों / किया अनाथ?
संजीव 'सलिल'
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
छीन लिया क्यों
माँ को तुमने?
कितना तुम्हें
मनाया हमने?
रोग मिटा कर दो
निरोग पर-
निर्मम उन्हें
उठाया तुमने.
करुणासागर!
दिया न साथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
मैया तो थीं
दिव्य-पुनीता.
मन रामायण,
तन से गीता.
कर्तव्यों को
निश-दिन पूजा.
अग्नि-परीक्षा
देती सीता.
तुम्हें नवाया
निश-दिन माथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
हरी! तुमने क्यों
चाही मैया?
क्या अब भी
खेलोगे कैया?
दो-दो मैया
साथ तुम्हारे-
हाय! डुबा दी
क्यों फिर नैया?
उत्तर दो मैं
जोडूँ हाथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
शुक्रवार, 20 नवंबर 2009
नवगीत: मैं अपना / जीवन लिखता -संजीव 'सलिल'
मैं अपना / जीवन लिखता
संजीव 'सलिल'
मैं अपना
जीवन लिखता
तुम कहते
गीत-अगीत है...
*
उठता-गिरता,
फिर भी चलता.
सुबह ऊग
हर साँझा ढलता.
निशा, उषा,
संध्या मन मोहें.
दें प्राणों को
विरह-विकलता.
राग-विराग
ह्रदय में धारे,
साथी रहे
अतीत हैं...
*
पाना-खोना,
हँसाना-रोना.
फसल काटना,
बीजे बोना.
शुभ का श्रेय
स्वयं ले लेना-
दोष अशुभ का
प्रभु को देना.
जन-मानकर
सच झुठलाना,
दूषित सोच
कुरीत है...
*
देखे सपने,
भूले नपने.
जो थे अपने,
आये ठगने.
कुछ न ले रहे,
कुछ न दे रहे.
व्यर्थ उन्हें हम
गैर कह रहे.
रीत-नीत में
छुपी हुई क्यों
बोलो 'सलिल'
अनीत है?...
****
नवगीत: कौन किताबों से/सर मारे?... आचार्य संजीव 'सलिल'
आचार्य संजीव 'सलिल'
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
बीत गया जो
उसको भूलो.
जीत गया जो
वह पग छूलो.
निज तहजीब
पुरानी छोडो.
नभ की ओर
धरा को मोड़ो.
जड़ को तज
जडमति पछता रे.
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
दूरदर्शनी
एक फलसफा.
वही दिखा जो
खूब दे नफा.
भले-बुरे में
फर्क न बाकी.
देख रहे
माँ में भी साकी.
रूह बेचकर
टका कमा रे...
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
बटन दबा
दुनिया हो हाज़िर.
अंतरजाल
बन गया नाज़िर.
हर इंसां
बन गया यंत्र है.
पैसा-पद से
तना तंत्र है.
निज ज़मीर बिन
बेच-भुना रे...
*
बुधवार, 18 नवंबर 2009
नव गीत : चलो भूत से मिलकर आएँ... -संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
कल से कल के
बीच आज है.
शीश चढा, पग
गिरा ताज है.
कल का गढ़
है आज खंडहर.
जड़ जीवन ज्यों
भूतों का घर.
हो चेतन
घुँघरू खनकाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जनगण-हित से
बड़ा अहम् था.
पल में माटी
हुआ वहम था.
रहे न राजा,
नौकर-चाकर.
शेष न जादू
या जादूगर.
पत्थर छप रह
कथा सुनाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जन-रंजन
जब साध्य नहीं था.
तन-रंजन
आराध्य यहीं था.
शासक-शासित में
यदि अंतर.
काल नाश का
पढता मंतर.
सबक भूत का
हम पढ़ पाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
नवगीत: सूना-सूना घर का द्वार
संजीव 'सलिल'
सूना-सूना
घर का द्वार,
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
भौजाई के
बोल नहीं,
बजते ढोलक-
ढोल नहीं.
नहीं अल्पना-
रांगोली.
खाली रिश्तों
की झोली.
पूछ रहे:
हाऊ यू आर?
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
माटी का
दीपक गुमसुम.
चौक न डाल
रहे हम-तुम.
सज्जा हेतु
विदेशी माल.
कुटिया है
बेबस-बेहाल.
श्रमजीवी
रोता बेज़ार.
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
हल्लो!, हाय!!
मोबाइल ने,
दिया न हाथ-
गले मिलने.
नातों को
जीता छल ने .
लगी चाँदनी
चुप ढलने.
'सलिल' न प्रवाहित
नेह-बयार.मना रहे
कैसा त्यौहार?...
****************
शनिवार, 14 नवंबर 2009
नवगीत: दवा ज़हर की सिर्फ ज़हर है... संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
दवा ज़हर की
सिर्फ ज़हर है...
*
विश्वासों को
तजकर दुनिया
सीख-सिखाती तर्क.
भुला रही
असली नकली में
कैसा, क्या है फर्क?
अमृत सागर सुखा
पूछती कहाँ खो गयी
हर्ष-लहर है...
*
राष्ट्र भूलकर
महाराष्ट्र की
चिंता करता राज.
असल नहीं, अब
हमें असल से
ज्यादा प्यारा ब्याज.
प्रकृति पुत्र है,
प्रकृति का शोषक
ढाता रोज कहर है....
*
दुनिया पूज रही
हिंदी को.
हमें न तनिक सुहाती.
परदेशी भाषा
अन्ग्रेज़ी हमको
'सलिल' लुभाती.
लिखीं हजारों गजल
न लेकिन हमको
ज्ञात बहर है...
*****************
शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
नवगीत: हिंद और हिंदी की जय हो... संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
**************
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
नवगीत: बैठ मुंडेरे कागा बोले आचार्य संजीव 'सलिल'
आचार्य संजीव 'सलिल'
बैठ मुंडेरे
कागा बोले
काँव, काँव का काँव.
लोकतंत्र की चौसर
शकुनी चलता
अपना दाँव.....
*
जनता
द्रुपद-सुता बेचारी.
कौरव-पांडव
खींचें साड़ी.
बिलख रही
कुररी की नाईं
कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल
हुई है
सूनी अमराई.
पनघट सिसके
कहीं न दिखतीं
ननदी-भौजाई.
राजनीति ने
रिश्ते निगले
सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
नहीं भूख को दाना.
नादाँ स्वामी,
सेवक दाना
सबल करे मनमाना.
सूरज
अन्धकार का कैदी
आसमान पर छाँव...
*
बुधवार, 4 नवंबर 2009
नव गीत घर को 'सलिल'/मकान मत कहो...
संजीव 'सलिल'
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
कंकर में
शंकर बसता है
देख सको तो देखो.
कण-कण में
ब्रम्हांड समाया
सोच-समझ कर लेखो.
जो अजान है
उसको तुम
बेजान मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
*
भवन, भावना से
सम्प्राणित
होते जानो.
हर कमरे-
कोने को
देख-भाल पहचानो.
जो आश्रय देता
है देव-स्थान
नत रहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर के प्रति
श्रद्धानत हो
तब खेलो-डोलो.
घर के
कानों में स्वर
प्रीति-प्यार के घोलो.
घर को
गर्व कहो लेकिन
अभिमान मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
स्वार्थों का
टकराव देखकर
घर रोता है.
संतति का
भटकाव देख
धीरज खोता है.
नवता का
आगमन, पुरा-प्रस्थान
मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर भी
श्वासें लेता
आसों को जीता है.
तुम हारे तो
घर दुःख के
आँसू पीता है.
जयी देख घर
हँसता, मैं अनजान
मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
मंगलवार, 3 नवंबर 2009
स्मृति गीत: संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
अलस सवेरे
उठते ही तुम,
बिन आलस्य
काम में जुटतीं.
सिगडी, सनसी,
चिमटा, चमचा
चौके में
वाद्यों सी बजतीं.
देर हुई तो
हमें जगाने
टेर-टेर
आवाज़ लगाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
जेल निरीक्षण
कर आते थे,
नित सूरज
उगने के पहले.
तव पाबंदी,
श्रम, कर्मठता
से अपराधी
रहते दहले.
निज निर्मित
व्यक्तित्व, सफलता
पाकर तुमने
सहज पचाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
माँ!-पापा!
संकट के संबल
गए छोड़कर
हमें अकेला.
विधि-विधान ने
हाय! रख दिया
है झिंझोड़कर
विकट झमेला.
तुम बिन
हर त्यौहार अधूरा,
खुशी पराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
यह सूनापन
भी हमको
जीना ही होगा
गए मुसाफिर.
अमिय-गरल
समभावी हो
पीना ही होगा
कल की खातिर.
अब न
शीश पर छाँव,
धूप-बरखा मंडराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
वे क्षर थे,
पर अक्षर मूल्यों
को जीते थे.
हमने देखा.
कभी न पाया
ह्रदय-हाथ
पल भर रीते थे
युग ने लेखा.
सुधियों का
संबल दे
प्रति पल राह दिखाई..
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
रविवार, 1 नवंबर 2009
नवगीत: भुज भर भेंटो...
नवगीत
संजीव 'सलिल'
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.
घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.
निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.
फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
बुधवार, 28 अक्टूबर 2009
नवगीत; चीनी दीपक-दियासलाई,
http://divyanarmada.blogspot.com
नवगीत
संजीव 'सलिल'
चीनी दीपक
दियासलाई,
भारत में
करती पहुनाई...
*
सौदा सभी
उधर है.
पटा पड़ा
बाज़ार है.
भूखा मरा
कुम्हार है.
सस्ती बिकती
कार है.
झूठ नहीं सच
मानो भाई.
भारत में
नव उन्नति आयी...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
श्रम का कोई
रसूख नहीं है.
फसल चर रहे
ठूंठ यहीं हैं.
मची हर कहीं
लूट यहीं है.
अंग्रेजी कुलटा
मन भाई.
हिंदी हिंद में
हुई पराई......
*
दड़बों जैसे
सीमेंटी घर.
तुलसी का
चौरा है बेघर.
बिजली-झालर
है घर-घर..
दीपक रहा
गाँव में मर.
शहर-गाँव में
बढ़ती खाई.
जड़ विहीन
नव पीढी आई...
*
गुरुवार, 15 अक्टूबर 2009
नवगीत: राह हेरते समय न कटता...
राह हेरते
समय न कटता...
*
पल दो पल भी
साथ तुम्हारा
पाने मन
तरसा करता है.
विरह तप्त
मन के मरुथल पर
मिलन मेघ
बरसा करता है.
भू की
रूप छटा नित हेरे-
बादल-मनुआ
ललच बरसता.
राह हेरते
समय न कटता...
*
नहीं समय से
पहले कुछ हो.
और न कुछ भी
बाद समय के.
नेह नर्मदा की
लहरों में
उठते हैं
तूफ़ान विलय के.
तन को मन का
मन को तन का
मिले न यदि
स्पर्श अखरता.
राह हेरते
समय न कटता...
*
अगर न दूरी
हो तो कैसे
मूल्य ज्ञात हो
अपनेपन का.
अगर अधूरी
रहें न आसें
कौन बताये
स्नेह स्वजन का?
शूल फूल में
फूल शूल में,
'सलिल' अनकहा
रिश्ता पलता.
राह हेरते
समय न कटता...
*
-divyanarmada.blogspot.com
बुधवार, 14 अक्टूबर 2009
नवगीत: आओ! मिलकर बाँटें-खायें... -आचार्य संजीव 'सलिल'
आचार्य संजीव 'सलिल'
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
करो-मरो का
चला गया युग.
समय आज
सहकार का.
महाजनी के
बीत गये दिन.
आज राज
बटमार का.
इज्जत से
जीना है यदि तो,
सज्जन घर-घुस
शीश बचायें.
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
आपा-धापी,
गुंडागर्दी.
हुई सभ्यता
अभिनव नंगी.
यही गनीमत
पहने चिथड़े.
ओढे है
आदर्श फिरंगी.
निज माटी में
नहीं जमीन जड़,
आसमान में
पतंग उडाएं.
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
लेना-देना
सदाचार है.
मोल-भाव
जीवनाधार है.
क्रय-विक्रय है
विश्व-संस्कृति.
लूट-लुटाये
जो-उदार है.
निज हित हित
तज नियम कायदे.
स्वार्थ-पताका
मिल फहरायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
*****************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पॉट.कॉम
सोमवार, 12 अक्टूबर 2009
दोहा गीत: मातृ ज्योति- दीपक पिता,
विजय विषमता तिमिर पर,
कर दे- साम्य हुलास..
मातृ ज्योति- दीपक पिता,
शाश्वत चाह उजास....
*
जिसने कालिख-तम पिया,
वह काली माँ धन्य.
नव प्रकाश लाईं प्रखर,
दुर्गा देवी अनन्य.
भर अभाव को भाव से,
लक्ष्मी हुईं प्रणम्य.
ताल-नाद, स्वर-सुर सधे,
शारद कृपा सुरम्य.
वाक् भारती माँ, भरें
जीवन में उल्लास.
मातृ ज्योति- दीपक पिता,
शाश्वत चाह उजास...
*
सुख-समृद्धि की कामना,
सबका है अधिकार.
अंतर से अंतर मिटा,
ख़त्म करो तकरार.
जीवन-जगत न हो महज-
क्रय-विक्रय व्यापार.
सत-शिव-सुन्दर को करें
सब मिलकर स्वीकार.
विषम घटे, सम बढ़ सके,
हो प्रयास- सायास.
मातृ ज्योति- दीपक पिता,
शाश्वत चाह उजास....
**************
= दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
नव गीत: हर जगह दीवाली है...
कुटिया हो या महल
हर जगह दीवाली है...
*
तप्त भास्कर,
त्रस्त धरा,
थे पस्त जीव सब.
राहत पाई,
मेघदूत
पावस लाये जब.
ताल-तालियाँ-
नदियाँ बहरीन,
उमंगें जागीं.
फसलें उगीं,
आसें उमगीं,
श्वासें भागीं.
करें प्रकाशित,
सकल जगत को
खुशहाली है.
कुटिया हो या महल
हर जगह दीवाली है....
*
रमें राम में,
किन्तु शारदा को
मत भूलें.
पैर जमाकर
'सलिल' धरा पर
नभ को छू लें.
किया अमंगल यहाँ-
वहाँ मंगल
हो कैसे?
मिटा विषमता
समता लायें
जैसे-तैसे.
मिटा अमावस,
लायें पूनम
खुशहाली है.
कुटिया हो या महल
हर जगह दीवाली है.
************
नव गीत दीपावली मना रे!...
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*
चक्र समय का
सतत चल रहा.
स्वप्न नयन में
नित्य पल रहा.
सूरज-चंदा
उगा-ढल रहा.
तम प्रकाश के
तले पल रहा,
किन्तु निराश
न होना किंचित.
नित नव
आशा-दीप जला रे!
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*
तन दीपक
मन बाती प्यारे!
प्यास तेल को
मत छलका रे!
श्वासा की
चिंगारी लेकर.
आशा-जीवन-
ज्योति जला रे!
मत उजास का
क्रय-विक्रय कर.
'सलिल' मुक्त हो
नेह लुटा रे!
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
**************
शब्दों की दीपावली आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
http://divyanarmada.blogspot.com
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
शब्दों की दीपावली
जलकर भी तम हर रहे, चुप रह मृतिका-दीप.
मोती पले गर्भ में, बिना कुछ कहे सीप.
सीप-दीप से हम मनुज तनिक न लेते सीख.
इसीलिए तो स्वार्थ में लीन पड़ रहे दीख.
दीप पर्व पर हों संकल्पित रह हिल-मिलकर.
दें उजियारा आत्म-दीप बन निश-दिन जलकर.
- छंद अमृतध्वनि
****************
गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009
नवगीत: माटी के पुतले है... आचार्य संजीव सलिल
माटी के पुतले है...
*
कुछ पाया
सोचा पौ बारा.
फूल हर्ष से
हुए गुबारा.
चार कदम चल
देख चतुर्दिक-
कुप्पा थे ज्यों
मैदां मारा.
फिसल पड़े तो
सच जाना यह-
बुद्धिमान बनते,
पगले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
भू पर खड़े,
गगन को छूते.
कुछ न कर सके
अपने बूते.
बने मिया मिट्ठू
अपने मुँह-
खुद को नाहक
ऊँचा कूते.
खाई ठोकर
आँख खुली तो
देखा जिधर
उधर घपले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
नीचे से
नीचे को जाते.
फिर भी
खुद को उठता पाते.
आँख खोलकर
स्वप्न देखते-
फिरते मस्ती
में मदमाते.
मिले सफलता
मिट्टी लगती.
अँधियारे
लगते उजले हैं.
देखा जिधर
उधर घपले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
***************
सोमवार, 28 सितंबर 2009
नव गीत:भर भुजाओं में भेंटो...
बिखरा पड़ा है,
बने तो समेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो.
समय कह रहा है,
खुशी से न फूलो
जमीं में जमा जड़,
गगन पल में छू लो
उजाला दिखे तो
तिमिर को न भूलो
नपना पड़ा, तो
सचाई न मेटो
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
सुविधा का पिंजरा,
सुआ मन का बंदी.
उसूलों की मंडी में
छाई है मंदी.
सियासत ने कर दी
रवायत ही गंदी.
सपना बड़ा,
सच करो, मत लपेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
मिले दैव पथ में
तो आँखें मिला लो.
लिपट कीच में
मन-कमल तो खिला लो.
'सलिल' कोशिशों से
बिगड़ता बना लो.
सरहद पे सरकश
न छोडो, चपेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
Posted by अनुभूति: नव गीत की कार्यशाला में हम at 2:09 AM
Labels: कार्यशाला-4
रविवार, 27 सितंबर 2009
नव गीत: हे हरि! अजब तुम्हारी माया...
आचार्य संजीव 'सलिल'
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
कंकर को
शंकर करते हो.
मति से
मानव रचते हो.
खेल खेलते
श्वास-आस का,
माया फैलाकर
ठगते हो.
तट पर धूप,
तीर पर छाया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
कभी
रुदन दे.
कभी
हास दे.
कभी
चैन दे.
कभी त्रास दे.
तुमने नित
जग को भरमाया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
जब पाया,
तब पाया-खोया.
अधर हँसा,
लख नयना रोया.
जगा-जगा
जग हार गया पर,
मूरख मन
सोया का सोया.
ढपली फोड़
बेसुरा गया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
तन को
बेहद पीर हो रही.
मन को
तनिक न धीर हो रही.
कृपा करो
हे करुणासागर!
द्रुपदसुता
नित चीर खो रही
टेर-टेर कर
स्वर थर्राया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
दीप जलाया
नीचे तम है.
तूने दिया
प्रचुर पर कम है.
'मैं' का मारा
है हर मानव,
बिसराया क्यों
उसने 'हम' है.
हर अपने ने
धता बताया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
बुधवार, 23 सितंबर 2009
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
वे
आसमान की
छाया थे.
वे
बरगद सी
दृढ़ काया थे.
थे-
पूर्वजन्म के
पुण्य फलित
वे,
अनुशासन
मन भाया थे.
नव
स्वार्थवृत्ति लख
लगता है
भवितव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
वे
हर को नर का
वन्दन थे.
वे
ऊर्जामय
स्पंदन थे.
थे
संकल्पों के
धनी-धुनी-
वे
आशा का
नंदन वन थे.
युग
परवशता पर
दृढ़ प्रहार.
गंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
वे
शिव-स्तुति
का उच्चारण.
वे राम-नाम
भव-भय तारण.
वे शांति-पति
वे कर्मव्रती.
वे
शुभ मूल्यों के
पारायण.
परसेवा के
अपनेपन के
मंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
नवगीत: लोकतंत्र के शहंशाह की जय...
लोकतंत्र के
शहंशाह की जय...
*
राजे-प्यादे
कभी हुए थे.
निज सुख में
नित लीन मुए थे.
करवट बदले समय
मिटे सब-
तनिक नहीं संशय.
कोपतंत्र के
शहंशाह की जय....
*
महाकाल ने
करवट बदली.
गायब असली,
आये नकली.
सिक्के खरे
नहीं हैं बाकि-
खोटे हैं निर्भय.
लोभतंत्र के
शहंशाह की जय...
*
जन-मत कुचल
माँगते जन-मत.
मन-मथ,तन-मथ
नाचें मन्मथ.
लोभ, हवस,
स्वार्थ-सुख हावी
करुनाकर निर्दय.
शोकतंत्र के
शहंशाह की जय....
******
सोमवार, 14 सितंबर 2009
नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय --संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
शनिवार, 29 अगस्त 2009
गीत: दिव्य सूर्य रश्मियाँ -सन्जीव 'सलिल'
भव्य भाव भूमियाँ...
श्वास-आस दायिका,
रास-लास नायिका।
त्रास-ह्रास हरंकर-
उजास वर प्रदायिका।
ज्ञान-ध्यान-मानमय
सहज-सृजित सृष्टियाँ...
कमलनयन ध्यायिका,
विशेष शेष शायिका।
अनंत-दिग्दिगंत की,
अनादि आख्ययिका।
मूर्तिमंत नव बसंत
कंत श्याम तामिया...
गीत-ग़ज़ल गायिका,
नवल नाद नायिका।
श्रवण-मनन-सृजन-कथन,
व्यक्त व्याख्यायिका।
श्रम-लगन-समर्पण की-
चाह-राह दामिया...
सतत-प्रगत धाविका,
विगतागत वाहिका।
संग अपार 'सलिल'-धार
आर-पार नाविका।
रीत-गीत-प्रीतपरक
दृष्टादृष्ट दृष्टियाँ...
प्रणय-गंध सात्विका
विलय-बंध प्राप्तिका।
श्वास-रंध्र आपूरित-
मलयानिल आप्तिका।
संचारित-सुविचारित
आचारित ऊर्मियाँ
*****
बुधवार, 26 अगस्त 2009
नव गीत: जिनको कीमत नहीं समय की -आचार्य संजीव 'सलिल'
आचार्य संजीव 'सलिल'
जिनको कीमत नहीं
समय की
वे न सफलता
कभी वरेंगे...
*
समय न थमता,
समय न झुकता.
समय न अड़ता,
समय न रुकता.
जो न समय की
कीमत जाने,
समय नहीं
उसको पहचाने.
समय दिखाए
आँख तनिक तो-
ताज- तख्त भी
नहीं बचेंगे.....
*
समय सत्य है,
समय नित्य है.
समय तथ्य है,
समय कृत्य है.
साथ समय के
दिनकर उगता.
साथ समय के
शशि भी ढलता.
हो विपरीत समय
जब उनका-
राहु-केतु बन
ग्रहण डसेंगे.....
*
समय गिराता,
समय उठाता.
समय चिढाता,
समय मनाता.
दुर्योधन-धृतराष्ट्र
समय है.
जसुदा राधा कृष्ण
समय है.
शूल-फूल भी,
गगन-धूल भी
'सलिल' समय को
नमन करेंगे...
***********
शनिवार, 22 अगस्त 2009
गीत: फैलाकर सुगंध मुस्काती पंखुडियाँ
मुस्काती पखुडियाँ,
बरस रहीं या
खोज रहीं हैं
अलगनियां?...
वाचक हैं
ये सद्भावों की,
पढ़कर कथा
अभावों की भी,
लोकतंत्र में
नहीं हो सकीं
हैं ये वंचक
नेताओं सी।
आशाओं की
अभिभावक
नन्ही-मुनियाँ...
मोहक क्षणजीवी
सपने सी,
रूप बदलती हैं
अपने सी।
छोड़ नीद
खो गईं अकेली,
संकट में
मोहक सपने सी।
निर्मम-निर्मोही
श्रावक हैं
या बनिया?...
हर अंजुरी को
महका देंगी,
गुल-गुलशन को
बहका देंगी,
लुक-छिपकर,
काना-फूसी कर,
पर घर में
ताके-झाँकेगी।
सलिल धार सम
देख रहीं हैं
जग-दुनिया...
*****
शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
गीत: कलम गीत की फसलें बोती
फसलें बोती...
शब्द सिपाही का
संबल बन,
नेह नर्मदा
या चम्बल बन,
सलिल तरंगें
अग-जग धोतीं...
परम्परा पिंजरे
में सिसके,
तोड़-छोड़
जाने में हिचके,
सहे पीर पर
धीर न खोती...
मन कोमल पर
तन कठोर है,
सांझ सुरमई
विमल भोर है।
स्वप्न सीप में,
सृजती मोती...
कभी खास है,
कभी आम है।
नाम अनेकों
पर अनाम है।
अरमानों की
मुखर संगोती...
फूल-शूल
पाषाण-धूल को।
शिखर-गगन को,
भूमि-मूल को
चुप अपने
कन्धों पर ढोती...
*****
गीत: अपनेपन का अर्पित...
अपनेपन का अर्पित,
अपनों को मान-पान...
गिरते हम, उठते हम।
रुकते हम, चलते हम।
बाधा से तनिक नहीं
डरते हम। थमते हम.
पैर जमा धरती
पर- छू लेंगे आसमान...
हार नहीं मानेंगे
तम् से रार ठानेंगे।
अक्षौहिणी तुम ले लो,
मात्र कृष्ण मांगेंगे।
पाञ्चजन्य फूंकेंगे,
होंगे हम भासमान...
कर्म-कथा कहते हैं,
मर्म-व्यथा सुनते हैं।
पर्वत के पत्थर से-
रेवा सम बहते हैं।
लहर-लहर, भंवर-भंवर
ऊगेंगे शत विहान...
दस दिश में गूंजेंगे,
नए मूल्य पूजेंगे।
संकट के समाधान
युक्ति लगा बूझेंगे।
मेहनती-प्रयासी ही
भाई-बंधु, खानदान...
ऊषा की लाली हम,
दोपहरी प्याली हम।
संध्या की मुसकाहट,
निशा नवल काली हम।
दस दिश में गूंजेंगे-
सरगम-सुर, ताल-तान...
मन्दिर में शंख-नाद
मस्जिद में हम अजान।
कंकर हम, शंकर हम,
विधि-हरि-हर अक्षर हम।
अजर-अमर, अटल-अगम।
कदमों के हम निशान...
शेष नाग फुफकारें।
तूफां बन हुंकारें।
मधुवन के मधुकर हम,
कलियों पर गुन्जारें।
अमिय-गरल हैं हमको-
सत्य कहें प्रिय सामान...
आ जाओ, लगो गले।
मिल पायें भले गले।
दगा दगा को देन हम-
हर विपदा हाथ मले-
हृदयों के कमल खिले
मन का मन करे मान...
*****
रविवार, 16 अगस्त 2009
नवगीत: मगरमचछ सरपंच... आचार्य संजीव् 'सलिल'
मगरमचछ सरपंच
मछलियाँ घेरे में
फंसे कबूतर आज
बाज के फेरे में...
सोनचिरैया विकल
न कोयल कूक रही
हिरनी नाहर देख
न भागी, मूक रही
जुड़े पाप ग्रह सभी
कुण्डली मेरे में...
गोली अमरीकी
बोली अंगरेजी है
ऊपर चढ़ क्यों
तोडी स्वयं नसेनी है?
सन्नाटा छाया
जनतंत्री डेरे में...
हँसिया फसलें
अपने घर में भरता है
घोड़ा-माली
हरी घास ख़ुद चरता है
शोले सुलगे हैं
कपास के डेरे में...
*****
सोमवार, 10 अगस्त 2009
स्वाधीनता दिवस पर विशेष रचना: हिंदी है. --'सलिल'
आचार्य संजीव 'सलिल'
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
****************************************
स्वाधीनता दिवस पर विशेष रचना: स्वतंत्र विश्व के स्वतंत्र वासियों को शत नमन. -संजीव 'सलिल'
आचार्य संजीव 'सलिल'
स्वतंत्र विश्व के स्वतंत्र वासियों को शत नमन.
स्वतंत्र ही रहे फिजा, स्वतंत्र ही रहे चमन.
स्वतंत्र हों, ये लक्ष्य ले, जो बढे कदम-कदम.
स्वतंत्र नहीं, देख जिनके दिल दुखे, थीं आँख नम.
स्वतंत्र दीप-शिख जलाने जिनने सर कटा दिए.
स्वतंत्रता-प्रकाश पाने खुद के घर जला दिए.
स्वतंत्रता के दीवानों को मौत भी थी जिंदगी.
स्वतंत्रता ही धर्म-कर्म, दीन-ईमां बंदगी.
स्वतंत्र मौत जिंदगी, गुलाम जिंदगी मरण.
स्वतंत्र स्वप्न सत्य हों, गुलाम सत्य विस्मरण.
स्वतंत्र आज हम हैं जिनके त्याग औ' बलिदान से.
स्वतंत्र जी रहे उठाये सर जहां में शान से.
स्वतंत्रता दिवस उन्हें नमन करो, नमन करो.
स्वतंत्रता पे जां लुटा के सार्थक जनम करो.
स्वतंत्रता का अर्थ नहीं आपसी टकराव है.
स्वतंत्र हैं सभी तभी जब आपसी लगाव है.
स्वतंत्र भारती उतारो आज मिल के आरती.
स्वतंत्रता की नर्मदा परम पवित्र तारती.
स्वतंत्र देश-वेश, भाषा-भाव भी पवित्र हैं.
स्वतंत्र मरण ही स्वतंत्र जिंदगी का मंत्र है.
जय जवान! जय किसान!!
जय विज्ञानं! देश महान!!
*****************************
स्वाधीनता दिवस पर विशेष आव्हान गीत :टूट जाओ मत झुकना साथी. -संजीव 'सलिल'
आचार्य संजीव 'सलिल'
टूट जाओ मत झुकना साथी.
बीच राह मत रुकना साथी.
एक-एक जुड़ शत-सहस्त्र हो-
थककर कभी न चूकना साथी....
मंजिल अपनी पाना साथी.
राह भूल मत जाना साथी.
राष्ट्र जिंदगी है हम सबकी-
बन इसका दीवाना साथी...
बहुत सहा, मत सहना साथी.
मेहनत अपना गहना साथी.
ऐक्यभाव की नेह-नर्मदा-
बन तरंग संग बहना साथी....
दीपकवत जल जाना साथी.
मरकर जीवन पाना साथी.
युग आया अब करो-मरो का-
गूँजे यही तराना साथी....
सब को साथ उठाना साथी.
कोई नहीं बेगाना साथी.
कंकर-कंकर से शंकर रच-
भू पर स्वर्ग बसाना साथी...
********************
गीत: श्रम के सुमन चढायेंगे
श्रम के सुमन चढायेंगे.
आचार्य संजीव 'सलिल'
राष्ट्र देव के श्री चरणों में,
श्रम के सुमन चढायेंगे.
संघर्षों के पथ पग धर,
निर्माणों पर बलि जायेंगे.....
हम से देश, देश से हम हैं.
मेहनत ही अपना परचम है.
मन्दिर, मस्जिद, गिरजा भूलो
एक देव युग-युग से श्रम है.
नेह नर्मदा नित्य नहाकर
जीवन सफल बनायेंगे...
सार-सार को छाँट-छाँटकर,
पाषाणों को काट-काटकर.
अर्जन- अर्चन में सब भागी-
श्रेय सभी लें बाँट-बाँटकर.
समरसता का मूलमंत्र हम
अग-जग में गुंजायेंगे...
माटी से मीनार गढ़ेंगे.
मंजिल तक सब साथ बढ़ेंगे.
बलिदानी-बलिपंथी हैं हम-
एक नहीं शत शीश चढेंगे.
हर कीमत देंगे, लेकिन पग
पीछे नहीं हटायेंगे.....
'मावस में बन दीप जलेंगे.
साथ समय के सदा चलेंगे.
कर्म करेंगे निरासक्त हो,
कभी न अपने दिवस ढलेंगे.
सबसे-सबके लिए-सभी का
ध्येय मार्ग अपनाएंगे....
अधिकारों का तेल डालकर,
कर्तव्यों के दीप बालकर.
रौशन कर दें सारी दुनिया,
''सलिल'' कदम रख हर सम्हालकर.
कर्मयोग के साधक हम सब
कर्मव्रती कहलायेंगे...
**********************
शुक्रवार, 7 अगस्त 2009
गीत: हम गिर-उठकर खड़े हुए हैं
हम गिर-उठकर
खड़े हुए हैं।
जो न गिरे
वे पड़े हुए हैं...
सूरत-सूरत
सुंदर मूरत,
कहीं न कुछ भी
बिना जरूरत।
पल-प्रति पल
जो जिए बदलकर,
जुड़े टूटकर-
जमे पिघलकर।
जो न महकते
सड़े हुए हैं...
कंकर-कंकर
देखे शंकर।
शिव-शव दोनों
ही प्रलयंकर।
मन्दिर-मन्दिर
बजाते घंटे;
पचा प्रसादी-
पलते पंडे।
तकदीरों से
बड़े हुए हैं...
ये भी, वे भी
दोनों कच्चे,
ख़ुद को बड़ा
समझते बच्चे।
सीख न पाते
किंतु सिखाते,
पुष्प वृक्ष से
झडे हुए हैं...
*****
रविवार, 2 अगस्त 2009
गीत: दीप-वर्तिका सदृश जलेंगे
गीत
> दीपवर्तिका
सदृश जलेंगे
आपद-विपदा
विहँस सहेंगे...
हैं लघु कण
यह सत्य जानते,
पर विराट से
समर ठानते।
पचा न पायें
आप हलाहल,
धार कंठ में-
हम उबारते।
शिवता-सुंदरता
के पथ पर-
सत का कर
गह नित्य बढ़ेंगे...
कहीं न परिमल
हर दल दलदल।
भ्रमर-दंश से
दंशित शतदल।
सलिल-धार
अनवरत प्रवाहित।
शब्द अमरकंटक
से प्रति पल।
लोक नर्मदा
नीति वर्मदा
कार्य शर्मदा
सतत करेंगे...
अजर-अमर हैं
हम अक्षर हैं।
नाद-ताल हैं
सरगम-स्वर हैं।
हम अनादि हैं,
हम अनंत हैं।
सादि-सांत हम
क्षण-भंगुर हैं॥
सच कहते हैं
सब जग सुन ले,
मौत वरेंगे पर न मरेंगे,
*****
शनिवार, 1 अगस्त 2009
गीत: अपने-सपने कर नीलाम
गीत
अपने सपने
कर नीलाम
औरों के कुछ
आयें काम...
तजें अयोध्या
अपने हित की
गहें राह चुप
सबके हित की
लोक हितों की
कैकेयी अनुकूल
न अब हो वाम...
लोक नीति की
रामदुलारी
परित्यक्ता
जनमत की मारी
वैश्वीकरण
रजक मतिहीन
बने- बिगाडे काम...
जनमत-
बेपेंदी का लोटा
सत्य-समझ का
हरदम टोटा
मन न देखता
देख रहा
है 'सलिल' चमकता चाम...
*****
गुरुवार, 30 जुलाई 2009
गीत: चुप न रहें निज स्वर में गायें
गीत
चुप न रहें
निज स्वर में गायें;
निविड़ तिमिर में
दीप जलाएं...
फिक्र नहीं जो
जग ने टोका
बाधा दी
हर पग पर रोका
झेल प्रबल
तूफां का झोंका
मुश्किल में
सब मिल मुस्काएं...
कौन किसी का
सदा सगा है?
अपनेपन ने
छला-ठगा है
झूठा नाता
नेह पगा है
सत्य न यह
पल भर बिसराएँ...
कलकल निर्झेर
बन बहना है
सुख-दुःख सम
चुप रह सहना है
नहीं किसी से
कुछ कहना है
रुकें न
मंजिल पायें...
*****
शुक्रवार, 24 जुलाई 2009
शोक गीत : समय कीमत कर न पाया... -आचार्य संजीव 'सलिल'
-आचार्य संजीव 'सलिल'
(प्रसिद्ध कवि-कथाकार-प्रकाशक, स्व. डॉ. (प्रो.) दिनेश खरे, विभागाध्यक्ष सिविल इंजीनियरिंग, शासकीय इंजीनियरिंग महाविद्यालय जबलपुर, सचिव इंडियन जियोटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर के असामयिक निधन पर )
नर नहीं,
नर-रत्न थे तुम,
समय कीमत
कर न पाया...
***
विरल थी
प्रतिभा तुम्हारी.
ज्ञान के थे
तुम पुजारी.
समस्याएँ
बूझते थे.
रूढियों से
जूझते थे.
देव ने
क्षमताएँ अनुपम
देख क्या
असमय बुलाया?...
***
नाथ थे तुम
'निशा' के पर
शशि नहीं,
'दिनेश' भास्वर.
कोशिशों में
गूँजता था
लग्न-निष्ठा
वेणु का स्वर.
यांत्रिकी-साहित्य-सेवा
दिग्-दिगन्तों
यश कमाया...
***
''शीघ्र आऊंगा''
गए-कह.
कहो तो,
हो तुम कहाँ रह?
तुम्हारे बिन
ह्रदय रोता
नयन से
आँसू रहे बह.
दूर 'अतिमा' से हुए-
'कौसुन्न' को भी
है भुलाया...
***
प्राण थे
'दिनमान' के तुम.
'विनय' के
अभिमान थे तुम.
'सुशीला' की
मृदुल ममता,
स्वप्न थे
अरमान थे तुम.
दिखाए-
सपने सलोने
कहाँ जाकर,
क्यों भुलाया?...
***
सीख कुछ
तुमसे सकें हम.
बाँट पायें ख़ुशी,
सह गम.
ज्ञान दें,
नव पीढियों को.
शान दें
कुछ सीढियों को.
देव से
जो जन्म पाया,
दीप बन
सार्थक बनाया.
***
नर नहीं,
नर-रत्न थे तुम,
'सलिल' कीमत
कर न पाया...
***
गुरुवार, 23 जुलाई 2009
नवगीत: अभिनव प्रयोग गुलाम हैं.... -संजीव 'सलिल'
आचार्य संजीव 'सलिल'
तुम
गुलाम देश में
आजाद हो जिए
और हम
आजाद देश में
गुलाम हैं....
तुम निडर थे
हम डरे हैं,
अपने भाई से.
समर्पित तुम,
दूर हैं हम
अपनी माई से.
साल भर
भूले तुम्हें पर
एक दिन 'सलिल'
सर झुकाए बन गए
विनत सलाम हैं...
तुम वचन औ'
कर्म को कर
एक थे जिए.
हमने घूँट
जन्म से ही
भेद के पिए.
बात या
बेबात भी
आपस में
नित लड़े.
एकता?
माँ की कसम
हमको हराम है...
आम आदमी
के लिए, तुम
लड़े-मरे.
स्वार्थ हित
नेता हमारे
आज हैं खड़े.
सत्ता साध्य
बन गयी,
जन-देश
गौड़ है.
रो रही कलम
कि उपेक्षित
कलाम है...
तुम
गुलाम देश में
आजाद हो जिए
'सलिल' हम
आजाद देश में
गुलाम हैं....
*****************
गुरुवार, 16 जुलाई 2009
गीत: अपना बिम्ब निहारो
अपना बिम्ब निहारो दर्पण मत तोड़ो,
कहता है प्रतिबम्ब की दर्पण मत तोड़ो.
स्वयं सरह न पाओ, मन को बुरा लगे,
तो निज रूप संवारो,दर्पण मत तोड़ो....
शीश उठाकर चलो झुकाओ शीश नहीं.
खुद से बढ़कर और दूसरा ईश नहीं.
तुम्हीं परीक्षार्थी हो तुम्हीं परीक्षक हो,
खुद को खुदा बनाओ, दर्पण मत तोड़ो....
पथ पर पग रख दो तो मंजिल पग चूमे.
चलो झूम कर दिग्-दिगंत-वसुधा झूमे.
आदम हो इंसान बनोगे प्रण कर लो,
पंकिल चरण पखारो, दर्पण मत तोड़ो.
बांटो औरों में जो भी अमृतमय हो.
गरल कंठ में धारण कर लो निर्भय हो.
वरन मौत का कर जो जीवन पायें 'सलिल'.
इवन में उन्हें उतारो, दर्पण मत तोड़ो.
***************************************
शनिवार, 11 जुलाई 2009
गीत -संजीव 'सलिल' भाग्य निज पल-पल सराहूं
भाग्य निज पल-पल सराहूं,
जीत तुमसे, मीत हारूं.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एक टक तुमको निहारूं...
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूं...
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ है.
विदेहित है देह त्रिभुवन,
मन मुखर काकातुआ है.
अछूते प्रतिबिम्ब की,
अंजुरी अनूठी विहंस वारूँ...
बांह में ले बांह, पूरी
चाह कर ले, दाह तेरी.
थाह पाकर भी न पाये,
तपे शीतल छांह तेरी.
विरह का हर पल युगों सा,
गुजारा, उसको बिसारूँ...
बजे नूपुर, खनक कंगना,
कहे छूटा आज अंगना.
देहरी तज देह री! रंग जा,
पिया को आज रंग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ, पी कंह? पुकारूं...
पंचशर साधे निहत्थे पर,
कुसुम आयुध चला, चल.
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चांदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूं...
मंगलवार, 16 जून 2009
गीत: राम कथाएँ - सलिल
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं।
सबकी अपनी-अपनी करुण-व्यथाएँ हैं....
अपने-अपने पिंजरों में हैं कैद सभी।
और चाहते हैं होना स्वच्छंद सभी।
श्वास-श्वास में कथ्य-कथानक हैं सबमें-
सत्य कहूँ गुन-गुन करते हैं छंद सभी।
अलग-अनूठे शिल्प-बिम्ब-उपमाएँ हैं
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....
अक्षर-अजर-अमर हैं आत्माएँ सबकी।
प्रेरक-प्रबल-अमित हैं इच्छाएँ सबकी।
माँग-पूर्ती, उपभोक्ता-उत्पादन हैं सब।
खन-खन करती मोहें मुद्राएँ सबकी।
रास रचता वह, सब बृज बालाएँ है
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....
जो भी मिलता है क्रेता-विक्रेता है।
किन्तु न कोई नौका अपनी खेता है।
किस्मत शकुनी के पाँसों से सब हारे।
फिर भी सोचा अगला दाँव विजेता है।
मौन हुई माँ, मुखर-चपल वनिताएँ हैं।
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....
करें अर्चना स्वहितों की तन्मय होकर।
वरें वंदना-पथ विधि का मृण्मय होकर।
करें कामना, सफल साधना हो अपनी।
लीन प्रार्थना में होते बेकल होकर।
तृप्ति-अतृप्ति नहीं कुछ, मृग- त्रिश्नाएं हैं।
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....
यह दुनिया मंडी है रिश्तों-नातों की।
दाँव-पेंच, छल-कपट, घात-प्रतिघातों की।
विश्वासों की फसल उगाती कलम सदा।
हर अंकुर में छवि है गिरते पातों की।
कूल, घाट, पुल, लहर, 'सलिल' सरिताएँ हैः।
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....
*************************************
मंगलवार, 9 जून 2009
दोहागीत: तरु कदंब कटे बहुत... सलिल
अभिनव प्रयोग:
दोहा-गीत
-संजीव 'सलिल',संपादक दिव्य नर्मदा
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक।
स्नेह-सलिल सिंचन करें,
महकें सुमन अनेक...
*
मन-वृन्दावन में बसे,
कोशिश का घनश्याम।
तन बरसाना राधिका,
पाले कशिश अनाम॥
प्रेम-ग्रंथ के पढ़ सकें,
ढाई अक्षर नेक।
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक.....
*
कंस प्रदूषण का करें,
मिलकर सब जन अंत।
मुक्त कराएँ उन्हें जो
सत्ता पीड़ित संत॥
सुख-दुःख में जागृत रहे-
निर्मल बुद्धि-विवेक।
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक।
*
तरु कदम्ब विस्तार है,
संबंधों का मीत।
पुलक सुवासित हरितिमा,
सृजती जीवन-रीत॥
ध्वंस-नाश का पथ सकें,
निर्माणों से छेक।
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो लगायें एक.....
*********************
शुक्रवार, 5 जून 2009
नवगीत: दीप-वर्तिका सदृश जलेंगे -आचार्य संजीव 'सलिल'
नव-गीत
दीप-वर्तिका
सदृश जलेंगे
आपद-विपदा
विहँस सहेंगे...
मौत वरेंगे पर न मरेंगे॥
हैं लघु कण
यह सत्य जानते,
पर विराट से
समर ठानते।
पचा न पायें
आप हलाहल,
धार कंठ में-
हम उबारते।
शिवता-सुन्दरता
के पथ पर-
सत का कर गह-
नित्य बढ़ेंगे...
मौत वरेंगे पर न मरेंगे॥
कहीं न परिमल
हर दल दलदल।
भ्रमर-दंश से
दंशित शतदल।
सलिल धार
अनवरत प्रवाहित।
शब्द अमरकंटक-
से प्रति पल।
लोक नर्मदा
नीति वर्मदा
कार्य शर्मदा
सतत करेंगे...
मौत वरेंगे पर न मरेंगे॥
अजर-अमर हैं
हम अक्षर हैं।
नाद-ताल हैं
सरगम-स्वर हैं।
हम अनादि हैं,
हम अनंत हैं।
सादि-सांत हम
क्षण-भंगुर हैं॥
सच कहते हैं
सब जग सुन ले,
सत-शिव-सुंदर
'सलिल' वरेंगे ...
मौत वरेंगे पर न मरेंगे॥
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शनिवार, 23 मई 2009
संस्मरण : संजीव 'सलिल'
संस्मरण :
ममतामयी महादेवी
नेह नर्मदा धार:
महीयसी महादेवी वर्मा केवल हिन्दी साहित्य नहीं अपितु विश्व वांग्मय की ऐसी धरोहर हैं जिन्हें पढने और समझने के लिए उनके धरातल तक उठना होगा। उनका विराट व्यक्तित्व और उदात्त कृतित्व उन्हें एक दिव्य आभा से मंडित करता तो उनकी निरभिमानता, सहजता और ममतामय दृष्टि नैकट्य की अनुभूति कराता। सफलता, यश और मान्यता के शिखर पर भी उनमें जैसी सरलता। सहजता, विनम्रता और सत्य के प्रति दृढ़ता थी वह अब दुर्लभ है।
पूज्य बुआश्री ने जिन मूल्यों का सृजन किया उन्हें अपने जीवन में मूर्तिमंत भी किया। 'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो' लिखनेवाली कलम की स्वामिनी का लम्बा सामाजिक-साहित्यिक कार्यकाल अविवादित और निष्कलुष रहा। उनहोंने सबको स्नेह-सम्मान दिया और शतगुण पाया। उनके निकट हर अंतर्विरोध इस तरह विलीन हो जाता था जैसे पावस में पावक।
हर बड़ा-छोटा, साहित्यकार-कलाकार, समाजसेवी-राजनेता, वशिष्ट-सामान्य, भाषा-भूषा, पंथ-संप्रदाय, क्षेत्र-प्रान्त, मत-विमत का अंतर भूलकर उनके निकट आते ही उनके पारिवारिक सदस्य की तरह नेह-नर्मदा में अवगाहन कर धन्यता की प्रतीति कर पाता था। महीयसी ने महाकवि प्रसाद, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), दादा (माखन लाल चतुर्वेदी), महापंडित राहुल जी, महाप्राण निराला, युगकवि पन्त, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी, दिनकर, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, फणीश्वर नाथ 'रेणू', नवीन, सुमन, भारती, उग्र आदि तीन पीढियों के सरस्वती सुतों को अपने ममत्व और वात्सल्य से सराबोर किया। समस्त साहित्यिक-सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उनकी उपस्थिति में स्वत विलीन या क्षीण हो जाते थे। उन्हें बापू और जवाहर से आशीष मिला तो अटल जी और इंदिरा जी से आत्मीयता और सम्मान।
ममता की शुचि मूर्ति वे, नेह नर्मदा धार।
माँ वसुधा का रत्न थीं, श्वासों का श्रृंगार॥
अपनेपन की चाह :
महादेवी जी में चिरंतन आदर्शों को जीवंत करने की ललक के साथ नव परम्पराओं से सृजित करने की पुलक भी थी। वे समग्रता की उपासक थीं। गौरवमयी विरासत के साथ सामयिक समस्याओं के सम्यक समाधान में उनकी तत्परता स्तुत्य थी। वे अपने सृजन संसार में लीन रहते हुए भी राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक नातों तथा अपने उत्स के प्रति सतत सचेष्ट रहती थीं। उनका परिवार रक्त संबंधों नहीं, स्नेह संबंधों से बना था। अजनबी से अपने बने लेने में उनका सानी नहीं था। वे प्रशंसा का अमृत, आलोचना का गरल, सुख की धूप, दुःख की छाँव समभाव से ग्रहण कर निर्लिप्त रहती थीं।
सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर उन्हें प्रिय रहा। जब भी अवसर मिलता वे जबलपुर आतीं और यहाँ के रचनाकारों पर आशीष बरसातीं। इस निकटता का प्रत्यक्ष कारण स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', नर्मदा प्रसाद खरे तथा उनकी प्राणप्रिय सखी सुभद्रा कुमारी चौहान थीं जो अपने पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रहों की अलख जलाये थीं। दादा भी कर्मवीर के सिलसिले में बहुधा जबलपुर रहते।
मूल की तलाश:
जबलपुर से लगाव का परोक्ष कारण महादेवी जी की ननिहाल थी जो घटनाओं के प्रवाह में छूट चुकी थी। दो पीढियों के मध्य का अन्तराल नयी पीढियों का अपरिचय बन गया। वे किसी से कुछ न कहतीं पर मन से चाहतीं की बिछुडे परिजन कभी मिल सकें। अंततः,अपने अंतिम जबलपुर प्रवास में उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उन्होंने सुभद्रा जी की मूर्ति के समीप हुए कवि सम्मेलन से संबोधित करते हुए जबलपुर में अपने ननिहाल होने की जानकारी दी तथा अपेक्षा की की उस परिवार में से कोई हो तो मिले।
साप्ताहिक हिंदुस्तान के होली विशेषांक में उनका एक साक्षात्कार छपा। प्रसिद्ध पत्रकार पी. डी. टन्डन से चर्चा करते हुए उन्होंने पुनः परिवार की बिखरी शाखा से मिलने-जुड़ने की कामना व्यक्त की। कहते हैं 'जहाँ चाह, वहाँ राह' उनकी यह चाह किसी निज हित के कारण नहीं स्नेह संबंध की उस टूटी कड़ी से जोड़ने की थी जिसे उनकी माताश्री प्रयास करने पर भी नहीं जोड़ सकीं थीं। शायद वे अपनी माँ की अधूरी इच्छा से पूरा करना चाह रही थीं। नियति से उनकी चाह के आगे झुकना पड़ा।
रहीम ने कहा है- 'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।' महादेवी जी की जिजीविषा ने टूटे धागे से जोड़ ही दिया। उनके ये दोनों वक्तव्य मैंने पढ़े। मैं आजीविका से अभियंता तथा शासकीय सेवा में होने पर भी उन दिनों पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहा था। महादेवी जी द्वारा बताया विवरण परिवार से मेल खाता था। उत्सुकतावश मैंने परिवार के बुजुर्गों से चर्चा की। उन दिनों का अनुशासन... कहीं डांट पडी, कहीं से अधूरी जानकारी... अधिकांश अनभिज्ञ थे।
कुछ निराशा के बाद मैंने अपने परिवार का वंश-वृक्ष (शजरा) बनाया, इसमें महादेवी जी या उनके माता-पिता का नाम कहीं नहीं था। ऐसा लगा कि यह परिवार वह नहीं है जिसे महीयसी खोज रही हैं। अन्दर का पत्रकार कुलबुलाता रहा... खोजबीन जारी रही... एक दिन जितनी जानकारी मिली थी वह महीयसी से भेजते हुए निवेदन किया कि कुछ बड़े आपसे रिश्ता होने से स्वीकारते हैं पर नहीं जानते कि क्या नाता है? मुझे नहीं मालूम किस संबोधन से आपको पुकारूँ? आपके आव्हान पर जो जुटा सका भेज रहा हूँ।
आप ही कुछ बता सकें तो बताइये। मैं आपकी रचनायें पढ़कर बड़ा हुआ हूँ। इस बहाने ही सही आपका आशीर्वाद पाने के सौभाग्य से धन्य हूँ। लगभग एक सप्ताह बाद एक लिफाफे में प्रातः स्मरणीय महादेवी जी का ४ पृष्ठों का पत्र मिला। पत्र में मुझ पर आशीष बरसाते हुए उन्होंने लिखा था कि किसी समय कुछ विघ्न संतोषी सम्बन्धियों द्वारा पनपाये गए संपत्ति विवाद में एक खानदान की दो शाखाओं में ऐसी टूटन हुई कि वर्तमान पीढियाँ अपरिचित हो गयीं।
उनके पत्र से विदित हुआ कि उनके नाना स्व. खैराती लाल जी मेरे परबाबा स्व. सुन्दर लाल तहसीलदार के सगे छोटे भाई थे। पिताजी जिन चिन्जा बुआ की चर्चा करते थे उनका वास्तविक नाम हेमरानी देवी था और वे महादेवी जी की माता श्री थीं। हमारे कुल में काव्य साधन के प्रति लगाव हर पीढी में रहा पर प्रतिभाएँ अवसर के अभाव में घर-आँगन तक सिमट कर रह गयीं। सुन्दर लाल व खैराती लाल शिव भक्त थे। शिव भक्ति के स्तोत्र रचते-गाते। उनसे यह विरासत हेमरानी को मिली। बचपन में हेमरानी को भजन रचते-गाते देख-सुनकर महादेवी जी ने पहली कविता लिखी-
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
ठंडे पानी से नहलातीं।
गीला चन्दन उन्हें लगतीं।
उनका भोग हमें दे जातीं।
फिर भी कभी नहीं बोले हैं।
माँ के ठाकुर जी भोले हैं...
माँ से शिव-पार्वती, नर्मदा, सीता-राम, राधा-कृष्ण के भजन-आरती, तथा पर्वों पर बुन्देली गीत सुनकर बचपन से ही महादेवी जी को काव्य तथा हिन्दी के प्रति लगाव के संस्कार मिले। माँ की अपने मायके से बिछड़ने की पीडा अवचेतन में पोसे हुए महादेवी जी अंततः टूटी कड़ी से जुड़ सकीं। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे इस रूप में मिला कि मैं उनके असीम स्नेह का भाजन बना।
जो महान उसमें पले, अपनेपन की चाह।
क्षुद्र मनस जलता रहे, मन में रखकर डाह।
बिंदु सिन्धु से जा मिला:
कबीर ने लिखा है:
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
जो बौरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
पूज्य बुआश्री से मिलने की उत्कंठा मुझे इलाहाबाद ले गयी। आवास पर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि वे बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी गयी हैं किसी को जानता था नहीं। निराश लौटने को हुआ कि एक कार को रुकते देख ठिठक गया। पलटकर देखा एक तरुणी वृद्धा को सहारा देकर कार से उतारने का जतन कर रही है।
मैं तत्क्षण कार के निकट पहुँचा तब तक वृद्धा जमीन पर पैर रखते हुए हाथ सहारे के लिए बढा रहीं थीं। पहले कभी न देखने पर भी मन ने कहा हो न हो यही बुआ श्री हैं। मैंने चरण स्पर्शकर उन्हें सहारा दिया। एक अजनबी युवा को निकट देख तरुणी संकुचाई, 'खुश रहो' कहते हुए बुआजी ने हाथ थामकर दृष्टि उठाई और पहचानने का यत्न करने लगीं कि कौन है?
तब तक घर से एक महिला और पुरुष आ गए थे। लम्बी यात्रा से लौटी श्रांत-क्लांत महीयसी को थामे अजनबी को देख कर उनके मन की उलझन स्वाभाविक थी। मैं परिचय दूँ इसके पहले ही वे बोलीं 'चलो, अन्दर चलो', मैंने कहा-'बुआजी! मैं संजीव' सुनते ही उनके चेहरे पर जिस चमक, हर्ष और उल्लास की झलक देखी वह अविस्मर्णीय है। उन्होंने भुजाओं में भरते हुए मस्तक चूमा। पूछा- 'कब आया?'
सब विस्मित कि यह कौन अजनबी इतने निकट आने की धृष्टता कर बैठा और उसे हटाया भी नहीं जा रहा। बुआ जी जैसे सबकी उलझन का आनंद ले रहीं हो, कुछ पल मौन रहकर बोलीं- 'ये संजीव है, मेरा भतीजा...जबलपुर से आया है।सबका अभिवादन किया।
उन्होंने सबका परिचय कराते हुए कहा 'ये मेरे बेटे की तरह रामजी, ये बहु, ये भतीजी आरती...चल अन्दर ले चल' मैं उन्हें थामे हुए घर में अन्दर ले आया। अन्दर कमरे में एक तख्त पर उजली सफ़ेद चादर बिछी थी, सिरहाने की ओर भगवान श्री कृष्ण की सुन्दर श्वेत बाल रूप की मूर्ति थी। बुआ जी बैठ गयीं। मुझे अपनी बगल में बैठा लिया, ऐसा लगा किसी तपस्विनी की शीतल वात्सल्यमयी छाया में हूँ।
तभी स्नेह सिक्त वाणी सुनी- 'बेटा! थक गया होगा, चाय-पानी कर आराम कर। फिर तुझसे बहुत सी बातें करना है। सामान कहाँ है?' तब तक आरती पानी ले आयी थी। मैंने पानी पिया, बताया चाय नहीं पीता, सुनकर कुछ विस्मित प्रसन्न हुईं, मेरे मन करने पर भी दूध पिलवाकर ही मानीं। मुझे चेत हुआ कि वे स्वयं सुदूर यात्रा कर थकी लौटी हैं। उन्होंने आरती को स्नान आदि की व्यस्वस्थ करने को कहा तो मैंने बताया कि मैं निवृत्त हो चुका हूँ। मैं धीरे से तखत के समीप बैठकर उनके पैर दबाने लगा... उन्होंने मना किया पर मैंने मना लिया कि वे थकी हैं कुछ आराम मिलेगा।
बुआ जी अपनी उत्कंठा को अधिक देर तक दबा नहीं सकीं। पूछा: कौन-कौन हैं घर-परिवार में? मैंने धीरे-धीरे सब जानकारी दी। मेरे मँझले ताऊ जी स्व. ज्वालाप्रसाद वर्मा ने स्व. द्वारका प्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास और व्यौहार राजेंद्र सिंह के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभायी, नानाजी राय बहादुर माता प्रसाद सिन्हा 'रईस', मैनपुरी ने ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद व खिताब ठुकराकर बापू के आव्हान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर नेहरु जी के साथ त्रिपुरी कांग्रेस में भाग लिया और तभी इन दोनों की भेंट से मेरे पिताजी और माताजी का विवाह हुआ- यह सुनकर वे हँसी और बोलीं 'यह तो कहानी की तरह रोचक है।
मेरे एक फूफा जी १९३९ में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री थे तथा कैप्टेन मुंजे व डॉ. हेडगेवार के साथ राम सेना व शिव सेना नामक सशस्त्र संगठनों के माध्यम से दंगों में अपहृत हन्दू युवतियों को मुक्तकर उनकी शुद्धि तथा सामाजिक स्वीकृति कराते थे । यह जानकर वे बोलीं- 'रास्ता कोई भी हो, भरत माता की सेवा ही असली बात है।' बुआ श्री ने १८५७ के स्वातंत्र्य समर में अपने पूर्वजों के योगदान और संघर्ष की चर्चा की। आरती ने उनसे स्नानकर भोजन करने का अनुरोध किया तो बोलीं- 'संजीव की थाली लगाकर यहीं ले आ, इसे अपने सामने ही खिलाऊँगी। बाद में नहा लूँगी।'
मैंने निवेदन किया कि वे स्नान कर लें तब साथ ही खा लेंगे तो बोलीं 'जब तक तुझे खिला न लूँ, पूजा में मन न लगेगा, चिंता रहेगी कि तूने कुछ नहीं खाया। उनके स्नेहपूर्ण आदेश का सम्मान करते हुए मुझे सामने ही बैठाया। एक रोटी अपने हाथों से खिलायी। भोजन के मध्य आरती से कह-कहकर सामग्री मंगाती रहीं। मेरा मन उनके स्नेह-सागर में अवगाहन कर तृप्त हो गया। उनके हाथों से घी लगी एक-एक रोटी अमृत जैसा स्वाद दे रही थी। फुल्के, दल, सब्जी, आचार, पापड़ जैसी सामान्यतः नित्य मिलनेवाली भोजन सामग्री में उस दिन जैसी मिठास फिर कभी नहीं मिली। पेट भर जाने पर भी आग्रह कर-कर के २ रोटी और खिलाईं, फिर मिठाई... बीच में लगातार बातें...फिर बोलीं- 'अब तुम आराम करो, नहाकर -पूजा करेगी।'
लगभग आधे घंटे में स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर आयीं तो तखत पर विराजते ही मैं फिर समीप ही बैठ गया। उनके पैर दबाते-दबाते कितनी ही बातें हुईं...काश तब आज जैसे यंत्र होते तो वह सब अंकित कर लिया जा सकता। परिवार के बाद अब वे मेरे बारे में पूछ रहीं थीं...क्या-क्या पढ़ लिया?, क्या कर रहा हूँ?, किन विधाओं में लिखता हूँ?, कौन-कौन से कवि-लेखक तथा पुस्तकें पसंद हैं?, घर में किसकी क्या रूचि है?, उनकी कौन-कौन सी कृतियाँ मैंने पढीं हैं? कौन सी सबसे ज्यादा पसंद है? यामा देखे या नहीं?, कौनसा चित्र अधिक अच्छ लगा? प्रश्न ही प्रश्न... जैसे सब कुछ जान लेना चाहती हों, वह सब जो समय-चक्र ने इतने सालों तक नहीं जानने दिया।
मैं अनुभव कर सका कि उनके मन में कितना ममत्व है, अदेखे-अनजाने नातों के लिए। शायद मानव और महामानव के बीच की सीमा रेखा होती है कि महा मानव सब पर स्नेह अमृत बरसाते हैं। मेरे बहुत आग्रह पर आराम करने को तैयार हुईं... तू क्या करेगा?,ऊब तो नहीं जायेगा? आश्वस्त किया कि मैं भैया (डॉ.पाण्डेय) - भाभी से गप्प कर रहा हूँ, आप विश्राम कर लें।
कुछ देर बाद उठीं तो फिर बातचीत का सिलसिला चला। मुझसे पूछा- 'तू अपना उपनाम 'सलिल' क्यों लिखता है?' मैंने कभी गहराई से सोचा ही न था, क्या बताता? मौन देखकर बोलीं- 'सलिल माने पानी... पानी जिन्दगी के लिए जरूरी है...पर गंगा में हो या नाले में दोनों ही सलिल होते हैं। बहता पानी निर्मला... सो तो ठीक है पर... उनका आशय था कि नाम सबसे अच्छा हो तो काम भी अच्छा करने की प्रवृत्ति होगी। वे स्वयं नाम से ही नहीं वास्तव में भी महादेवी ही थीं।
बातचीत के बीच-बीच में वे आरती की प्रशंसा करतीं तो वह संकुचा जाती। मैं भी सुबह से देख रहा था कि वह कितनी ममता से बुआश्री की सेवा में जुटी थी। बुआजी डॉ. पाण्डेय व भाभी जी की भी बार-बार प्रशंसा करती रहीं। कुछ देर बाद कहा- 'तू क्या पूछना चाहता है पूछ न ? सुबह से मैं ही बोल रही हूँ। अब तू पूछ...जो मन चाहे...मैं तेरी माँ जैसी हूँ... माँ से कोई संकोच करता है? पूछ...' न कैसे अनुमान लगाया कि मेरे मन में कुछ जिज्ञासाएँ हैं।
पत्रकारिता में पढ़ते समय वरिष्ठ पत्रकार स्व. कालिकाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर' विभागाध्यक्ष थे। उनकी धारणा थी कि महादेवी जी ने निराला जी का अर्थ शोषण किया, मैं असहमति व्यक्त करता तो कहते 'तुम क्या जानो?' आज अवसर था लेकिन पूछूँ तो कैसे? बुआ जी के प्रोत्साहित करने पर मैंने कहा- 'निराला जी के बारे में कुछ बताइए।?'
'वे महाप्राण थे विषपायी...बुआजी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आये, ऐसा लगा कि उनकी रूचि का प्रसंग है...कुछ क्षण आँखें मूँद कर जैसे उन पलों को जी रहीं हों जब निराला साथ थे। फिर बोलीं क्या कहूँ?...कितना कहूँ? ऐसा आदमी न पहले कभी हुआ... न आगे होगा... वो मानव नहीं महामानव थे...विषपायी थे। उनके बाद मेरी राखी सूनी हो गयी... उस एक ही पल में मैं समझ गया कि कुसुमाकर जी कि धारणा निराधार थी।
'निराला जी आम लोगों की तरह दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रखते थे। प्रकाशक उनकी किताबें छापकर अमीर हो गए पर वे फकीर ही रह गये। एक बार हम लोगों ने बहुत कठिनाई से दुलारे लाल भार्गव से उन्हें रोयल्टी की राशि दिलवाई, वे मेरे पास छोड़कर जाने लगे मुश्किल से अपने साथ ले जाने को तैयार हुए, मैं खुश थी कि अब वे हमेशा रहनेवाले आर्थिक संकट से कुछ दिनों तक मुक्त रहेंगे।
कुछ दिनों बाद आये तो बोले कुछ रुपये चाहिए। मुझे अचरज हुआ कि इतने रुपये कहाँ गए? पूछा तो बोले उस दिन तुम्हारे पास से गया तो भूख से परेशान एक बुढिया को भीख मांगते देखा। जेब से एक नोट निकलकर उसके हाथ पर रखकर पूछा कि अब तो भीख नहीं मांगेगी। बुढिया बोली जब तक इनसे काम चलेगा नहीं मांगूगी। निराला जी ने एक गड्डी निकल कर उसके हाथों में रखकर पूछ अब कब तक भीख नहीं मांगेगी? बुढिया बोली 'बहुत दिनों तक।' निराला जी ने सब गड्डियाँ भिखारिन की झोली में डालकर पूछा- 'अब?' 'कभी नहीं' बुढिया बोली। निराला जी खाली हाथ घर चले गए।
जब खाने को कुछ न बचा तथा बनिए ने उधार देने से मना कर दिया तो मेरे पास आ गए थे। ऐसे थे भैया। कुछ देर रुकीं...शायद कुछ याद कर रहीं थी...फिर बोलीं एक बार कश्मीर में मेरा सम्मान कर पश्मीना की शाल उढाई गयी। मेरे लौटने की खबर पाकर भैया मिलाने आये। ठण्ड के दिनों में भी उघारे बदन, मैंने सब हाल बताया तथा शाल उन्हें उढा दी कि अब ठण्ड से बचे रहेंगे। कुछ दिन बाद ठण्ड से जड़ते हुए आये। मैंने पूछा शाल कहाँ है? पहले तो सर झुकाए चुप बैठे रहे। दोबारा पूछने पर बताया कि रास्ते में ठण्ड से पीड़ित किसी भिखारी को कांपते देख उसे उढा दी। बोल देखा है कोई दूसरा ऐसा अवढरदानी ? वाणी मौन थी और कान व्याकुल।
चर्चा...और चर्चा, प्रसंग से प्रसंग... निराला और नेहरु, निराला और पन्त, निराला और इलाचंद्र जोशी,, निराला और राजेंद्र प्रसाद, निराला और हिंदी, निराला और रामकृष्ण, निराला और आकाशवाणी, आदि...कभी कंठ रुद्ध हो जाता... कभी आँखें भर आतीं...कभी सर गर्व से उठ जाता... निराला और राखी की चर्चा करते हुए बताया कि निराला और इलाचंद्र जोशी में होड़ होती कि कौन पहले राखी बंधवाये? निराला राखी बाँधने के पहले रूपये मांगते फिर राखी बंधने पर वही दे देते क्योकि उनके पास कुछ होता ही नहीं था और खाली हाथ राखी बंधवाना उन्हें गवारा नहीं होता था।
स्मृतियों के महासागर में डूबती-तिरती बुआश्री का अगला पड़ाव था दद्दा और जिया... चिरगांव की राखी। दद्दा का संसद में कवितामय बजट भाषण...हिन्दी संबन्धी आन्दोलन... फिर प्रसाद और कामायनी की चर्चा। फिर दिनकर... फिर नन्द दुलारे वाजपेई... हजारी प्रसाद द्विवेदी... नवीन... सुमन... जवाहर लाल नेहरु... इंदिरा जी, द्वारका प्रसाद मिश्र... पत्रकार पी. डी. टंडन अनेक नाम... अनेक प्रसंग... अनंत कोष स्मृतियों का।
मैंने प्रसंग परिवर्तन के लिए कहा- 'कुछ अपने बारे में बताइए। 'क्या बताऊँ? अपने बारे में क्या कहूं? मैं तो अधूरी रह गयी हूँ उसके बिना...' मैं अवाक् था। किसकी कथा सुनने को मिलेगी? ...कौन है वह महाभाग? 'वह तो थी ही विद्रोहिणी... बचपन से ही... निर्भीक, निस्संकोच, वात्सल्यमयी, सेवाभावी, रूढी भंजक...फिर प्रारंभ हुआ सुभद्रा पुराण... स्कूल में भेंट... दोनों का कविता लिखना, चूडी बदलना... लक्ष्मण प्रसाद जी से भेंट... दोनों का विवाह... पर्दा प्रथा को तोड़ना... दुधमुंहे बच्चों को छोड़कर सत्याग्रह में भाग लेना-जेल यात्रा... फिर सुभद्रा जी के विधायक बनने में सेठ गोविन्द दास द्वारा बाधा... सरदार पटेल द्वारा समर्थन... गाँधी जी के अस्थि विसर्जन में सुभद्रा जी द्वारा झुग्गीवासियों को लेकर जाना...अंत में मोटर दुर्घटना में निधन... की चर्चा कर रो पडी...खुद को सम्हाला...आंसू पोंछे...पानी पिया...प्रकृतिस्थ हुईं...
'थक गया न ? जा आराम कर।'
'नहीं बुआजी! बहुत अच्छा लग रहा है...ऐसा अवसर फिर न जाने कब मिले?...तो क्या सुनना है अब?...इतनी कथा तो पंडित दक्षिणा लेकर भी नहीं कहता'...
'बुआ जी आपके कृष्ण जी!'...;
' मेरे नहीं... कृष्ण तो सबके हैं जो उन्हें जिस भाव से भज ले...उन्हें वही स्वीकार। तू न जानता होगा...एक बार पं. द्वारका प्रसाद और मोरार जी देसाई में प्रतिद्वंदिता हो गयी कि बड़ा कृष्ण-भक्त कौन है? पूरा प्रसंग सुनाया फिर बोलीं- भगवन! ऐसा भ्रम कभी न दे।'
अब भी मुझे आगे सुनने के लिए उत्सुक पाया तो बोलीं तू अभी तक नहीं थका?...पी. डी. टन्डन का नाम सुना है? एक बार साक्षात्कार लेने आया तो बोला आज बहुत खतरनाक सवाल पूछने आया हूँ। मैनें कहा पूछो तो बोला अपनी शादी के बारे में बताइये। मैनें कहा- 'बाप रे, यह तो आज तक किसी ने नहीं पूछा। क्या करेगा जानकर?'
बुआ जी बताइए न, मैं भी जानना चाहता हूँ।' -मेरे मुंह से निकला,
'तू भी कम शैतान नहीं है...चल सुन...फिर अपने बचपन...बाल विवाह...गाँधी जी व् बौद्ध धर्म के प्रभाव, दीक्षा के अनुभव, मोह भंग, प्रभावतीजी से मित्रता, जे. पी. के संस्मरण... अपने बाल विवाह के पति से भेंट... गृहस्थ जीवन के लिए आमंत्रण, बापू को दिया वचन गार्हस्थ से विराग आदि प्रसंग उन्होंने पूरी निस्संगता से सुनाये।
उनके निकट लगभग ६ घंटे किसी चलचित्र की भांति कब कटे पता ही न चला...मुझे घड़ी देखते पाया तो बोलीं- 'तू जायेगा ही? रुक नहीं सकता? तेरे साथ एक पूरा युग फिर से जी लिया मैंने।'
सबेरे वे अपनी नाराजगी जता चुकी थीं कि इतने कम समय में क्यों जा रहा हूँ?, रुकता क्यों नहीं? पर इस समय शांत थीं...उनका वह वात्सल्य...वह स्पर्श...वह स्नेह...अब तक रोमांचित कर देता है...बाद में ३-४ बार और बुआ जी का शुभाशीष पाया।
कभी ईश्वर मिले और वर माँगने को कहे तो मैं बुआ जी के साथ के वही पल फिर से जीना चाहूँगा।
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