नव गीत
संजीव 'सलिल'
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
कंकर में
शंकर बसता है
देख सको तो देखो.
कण-कण में
ब्रम्हांड समाया
सोच-समझ कर लेखो.
जो अजान है
उसको तुम
बेजान मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
*
भवन, भावना से
सम्प्राणित
होते जानो.
हर कमरे-
कोने को
देख-भाल पहचानो.
जो आश्रय देता
है देव-स्थान
नत रहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर के प्रति
श्रद्धानत हो
तब खेलो-डोलो.
घर के
कानों में स्वर
प्रीति-प्यार के घोलो.
घर को
गर्व कहो लेकिन
अभिमान मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
स्वार्थों का
टकराव देखकर
घर रोता है.
संतति का
भटकाव देख
धीरज खोता है.
नवता का
आगमन, पुरा-प्रस्थान
मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर भी
श्वासें लेता
आसों को जीता है.
तुम हारे तो
घर दुःख के
आँसू पीता है.
जयी देख घर
हँसता, मैं अनजान
मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
बुधवार, 4 नवंबर 2009
मंगलवार, 3 नवंबर 2009
स्मृति गीत: संजीव 'सलिल'
स्मृति गीत:
संजीव 'सलिल'
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
अलस सवेरे
उठते ही तुम,
बिन आलस्य
काम में जुटतीं.
सिगडी, सनसी,
चिमटा, चमचा
चौके में
वाद्यों सी बजतीं.
देर हुई तो
हमें जगाने
टेर-टेर
आवाज़ लगाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
जेल निरीक्षण
कर आते थे,
नित सूरज
उगने के पहले.
तव पाबंदी,
श्रम, कर्मठता
से अपराधी
रहते दहले.
निज निर्मित
व्यक्तित्व, सफलता
पाकर तुमने
सहज पचाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
माँ!-पापा!
संकट के संबल
गए छोड़कर
हमें अकेला.
विधि-विधान ने
हाय! रख दिया
है झिंझोड़कर
विकट झमेला.
तुम बिन
हर त्यौहार अधूरा,
खुशी पराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
यह सूनापन
भी हमको
जीना ही होगा
गए मुसाफिर.
अमिय-गरल
समभावी हो
पीना ही होगा
कल की खातिर.
अब न
शीश पर छाँव,
धूप-बरखा मंडराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
वे क्षर थे,
पर अक्षर मूल्यों
को जीते थे.
हमने देखा.
कभी न पाया
ह्रदय-हाथ
पल भर रीते थे
युग ने लेखा.
सुधियों का
संबल दे
प्रति पल राह दिखाई..
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
संजीव 'सलिल'
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
अलस सवेरे
उठते ही तुम,
बिन आलस्य
काम में जुटतीं.
सिगडी, सनसी,
चिमटा, चमचा
चौके में
वाद्यों सी बजतीं.
देर हुई तो
हमें जगाने
टेर-टेर
आवाज़ लगाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
जेल निरीक्षण
कर आते थे,
नित सूरज
उगने के पहले.
तव पाबंदी,
श्रम, कर्मठता
से अपराधी
रहते दहले.
निज निर्मित
व्यक्तित्व, सफलता
पाकर तुमने
सहज पचाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
माँ!-पापा!
संकट के संबल
गए छोड़कर
हमें अकेला.
विधि-विधान ने
हाय! रख दिया
है झिंझोड़कर
विकट झमेला.
तुम बिन
हर त्यौहार अधूरा,
खुशी पराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
यह सूनापन
भी हमको
जीना ही होगा
गए मुसाफिर.
अमिय-गरल
समभावी हो
पीना ही होगा
कल की खातिर.
अब न
शीश पर छाँव,
धूप-बरखा मंडराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
वे क्षर थे,
पर अक्षर मूल्यों
को जीते थे.
हमने देखा.
कभी न पाया
ह्रदय-हाथ
पल भर रीते थे
युग ने लेखा.
सुधियों का
संबल दे
प्रति पल राह दिखाई..
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
रविवार, 1 नवंबर 2009
नवगीत: भुज भर भेंटो...
आज की रचना:
नवगीत
संजीव 'सलिल'
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.
घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.
निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.
फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
नवगीत
संजीव 'सलिल'
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.
घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.
निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.
फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
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