शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

हास्य मुक्तिका: ...छोड़ दें?? --संजीव 'सलिल'

हास्य मुक्तिका:
...छोड़ दें??
संजीव 'सलिल'
*
वायदों का झुनझुना हम क्यों बजाना छोड़ दें?
दिखा सपने आम जन को क्यों लुभाना छोड़ दें??

गलतियों पर गलतियाँ कर-कर छिपाना छोड़ दें?
दूसरों के गीत अपने कह छपाना छोड़ दें??

उठीं खुद पर तीन उँगली उठें परवा है नहीं
एक उँगली आप पर क्यों हम उठाना छोड़ दें??

नहीं भ्रष्टाचार है, यह महज शिष्टाचार है.
कह रहे अन्ना कहें, क्यों घूस खाना छोड़ दें??

पूजते हैं मंदिरों में, मिले राहों पर अगर.
तो कहो क्यों छेड़ना-सीटी बजाना छोड़ दें??

गर पसीना बहाना है तो बहायें आम जन.
ख़ास हैं हम, कहें क्यों करना बहाना छोड़ दें??  

राम मुँह में, छुरी रखना बगल में विरसा 'सलिल'
सिया को बेबात जंगल में पठाना छोड़ दें??

बुढाया है तन तो क्या? दिल है जवां  अपना 'सलिल'
पड़ोसन को देख कैसे मुस्कुराना छोड़ दें?

हैं 'सलिल' नादान क्यों दाना कहाना छोड़ दें? 
रुक्मिणी पा गोपियों को क्यों भुलाना छोड़ दें??
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

बसंत : शब्द चित्र --संजीव 'सलिल'


बसंत : शब्द चित्र संजीव 'सलिल'


*
तब भी धूप-छाँव होती थी.
अब भी सुख-दुःख आते-जाते.
तब भी गत अच्छा लगता था,
अब भी विगत-दिवस मन भाते.
गिर-उठ-चलकर मंजिल तब भी
वरते थे पग हो आनंदित.
अब भी भू पर खड़े नापते गगन 
मनुज हम परमानन्दित .
तम पर तब भी उजियारे ने 
अंकित कर दी थी जय-गाथा.
अब भी रजनी पर ऊषा ने 
फहराई है विजय पताका.
शिशिर सँग तब भी पहुनाई
करता था हेमंत पुलककर.
पावस सँग अब भी तरुणाई
वासंती होती है हँसकर..
योगी-भोगी दोनों तब भी
अपना-अपना गीत सुनाते.
सुर, नर, असुर आज भी 
मानव के मन में ही पाये जाते..
*
 श्री निधि जिसने पायी उसको
अब शेष रहा क्या पाना है?
जो पाया उससे तुष्ट न हो
तो शेष सिर्फ पछताना है.
प्रिय सी प्रेयसी हो बाँहों में 
तो रहे न कोई चाहों में.
भँवरे को कलियों पर मरकर
भी आखिर में जी जाना है.
*
आगमन बसंत का...
इस तरह हुआ जैसे 
कामिनी ने पाया है
दर्शन निज कंत का.
नव बसंत आया है...
नयनों में सपनों सा,
अनजाने अपनों सा,
अनदेखे नपनों सा,
खुद से शरमाया है...
*
आओ, आओ ऋतुराज बसंत.
आकर फिर मत जाओ बसंत.
पतझड़ से सूने तरुओं पर-
नव पल्लव बन छाओ बसंत..
*
बासंती मौसम की सौं है
मत बिसराना तनिक बसंत.
कलियों के सँग खूब झूमना 
मत इतराना तनिक बसंत.
जो आता है, वह जाता है,
जाकर आना तनिक बसंत.
राजमार्ग-महलों को तज
कुटियों में छाना तनिक बसंत..
*
आ गया ऋतुराज फिर से
गाओ मंगल गीत...
पवन री सुर छेड़ स्नेहिल
गुँजा कजरी झूमकर.
डाल झूला बाग़ में
हम पेंग लें-लें लूमकर.
आ गया ऋतुराज फिर से
पुलक-बाँटो प्रीत...
जीत-हारो, हार-जीतो
निज हृदय को आज.
समर्पण-अर्पण के पल में
लाज का क्या काज?
गैर कोई भी नहीं
अपनत्व पालो मीत...
*
नव बसंत सुस्वागतम..
देख अरसे बाद तुमको 
हो रही है आँख नम.
दृष्टि दो ऐसी कि मिट जाए 
सकल मन का भरम.
दिग-दिगन्तों तक न दीखे
छिपे दीपक तले तम.
जी सके सच्चाई जग में
रहे हरदम दम में दम.
हौसलों के लिये ना हो
कोई भी मंजिल अगम.
*
ओ बसंत रुक जाना...
ठिठक गये खुशबुओं के पैर.
अब न खुशियाँ ही रही हैं गैर.
मनाती हैं आरजुएँ खैर.
ताली दे गाना...
पनघट की चल कर लें सैर.
पोखर में मीन पकड़-तैर.
बिसरा कब किससे रहा बैर.
किसने हठ ठाना...
*
जाने कब आ गयी छटा बसंत की.
अग-जग पर छा गयी छटा बसंत की..
सांवरे पर रीझ रही खीझ भी रही
गोरी को भा गयी छटा बसंत की..
संसद से द्वेष मिटा, स्नेह छा गया
सबको भरमा गयी छटा बसंत की..
सैयां के नयनों में खुद को खुद देख.
लजाई-शरमा गयी छटा बसंत की..
प्राची के गालों की लालिमा बनी.
जवां दिल धड़का गयी छटा बसंत की..
*
चलो खिलायें 
वीराने में सुमन
मुस्कुरायें.
बाँह फैलायें 
मूँदकर नयन
नगमे सुनायें
खुशी मनायें
गैर की खुशियों में 
दर्द भुलायें.
*