गुरुवार, 6 मई 2010

मुक्तक : माँ के प्रति प्रणतांजलि: संजीव 'सलिल'



तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल'  डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी.. 
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*


गीत : जब - तब --संजीव 'सलिल'

गीत :

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जब - तब

संजीव 'सलिल'


अभिषेक किया जब अक्षर का,

तब कविता का दीदार मिला.
शब्दों की आराधना करी-
तब भावों का स्वीकार मिला.
जब छंद बसाया निज उर में
तब कविता के दर्शन पाये.
पर पीड़ा जब अपनी समझी
तब जीवन के स्वर मुस्काये.
जब वहम अहम् का दूर हुआ
तब अनुरागी मन सूर हुआ.
जब रत्ना ने ठोकर मारी
तब तुलसी जग का नूर हुआ.
जब खुद को बिसराया मैंने
तब ही जीवन मधु गान हुआ.
जब विष ले अमृत बाँट दिया
तब मन-मंदिर रसखान हुआ..
जब रसनिधि का सुख भोग किया
तब 'सलिल' अकिंचन दीन हुआ.
जब जस की तस चादर रख दी
तब हाथ जोड़ रसलीन हुआ..
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com