नवगीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
बैठ मुंडेरे
कागा बोले
काँव, काँव का काँव.
लोकतंत्र की चौसर
शकुनी चलता
अपना दाँव.....
*
जनता
द्रुपद-सुता बेचारी.
कौरव-पांडव
खींचें साड़ी.
बिलख रही
कुररी की नाईं
कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल
हुई है
सूनी अमराई.
पनघट सिसके
कहीं न दिखतीं
ननदी-भौजाई.
राजनीति ने
रिश्ते निगले
सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
नहीं भूख को दाना.
नादाँ स्वामी,
सेवक दाना
सबल करे मनमाना.
सूरज
अन्धकार का कैदी
आसमान पर छाँव...
*
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सलिल जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही श्रेष्ठ नवगीत है। यह कुररी क्या होती है? आपने लिखा है कि बिलख रही कुररी की नाई।
Ab kya kahun aap to paathshala hain,jahan aakar ham achambhit bhaav se dekhkar jaate hain ki lekhan kala kise kahte hain...
जवाब देंहटाएंVartmaan yatharth ka itna satik chitran aapne kiya hai ki man mugdh hokar rah gaya...