शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

गीत: कलम गीत की फसलें बोती

कलम गीत की
फसलें बोती...

शब्द सिपाही का
संबल बन,
नेह नर्मदा
या चम्बल बन,
सलिल तरंगें
अग-जग धोतीं...

परम्परा पिंजरे

में सिसके,
तोड़-छोड़
जाने में हिचके,
सहे पीर पर
धीर न खोती...

मन कोमल पर
तन कठोर है,
सांझ सुरमई
विमल भोर है।
स्वप्न सीप में,
सृजती मोती...

कभी खास है,
कभी आम है।
नाम अनेकों
पर अनाम है।
अरमानों की
मुखर संगोती...

फूल-शूल
पाषाण-धूल को।
शिखर-गगन को,
भूमि-मूल को
चुप अपने
कन्धों पर ढोती...

*****

3 टिप्‍पणियां:

  1. कलम गीत की फसले बोती। अच्‍छा गीत बन पडा है। हमें भी सीखने को मिल रहा है। इसी प्रकार प्रेरित करते रहें। धन्‍यवाद।

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  2. sabase pahale to aacharya ji ko saadar pranaam,
    is geet ko padh kar achanak hi shabdon ke saath maaya lag gayee aur fir usase rishte naate banane lage nishabd ho jata hun jab bhi shradhey aacharya ji ko padhata hun...


    arsh

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  3. बहुत सुन्दर गीत
    कलम गीत की फसलें बोती
    चुप अपने कन्धों पर ढोती
    बेमिसाल चिन्तन

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