गीत
भाग्य निज पल-पल सराहूं,
जीत तुमसे, मीत हारूं.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एक टक तुमको निहारूं...
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूं...
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ है.
विदेहित है देह त्रिभुवन,
मन मुखर काकातुआ है.
अछूते प्रतिबिम्ब की,
अंजुरी अनूठी विहंस वारूँ...
बांह में ले बांह, पूरी
चाह कर ले, दाह तेरी.
थाह पाकर भी न पाये,
तपे शीतल छांह तेरी.
विरह का हर पल युगों सा,
गुजारा, उसको बिसारूँ...
बजे नूपुर, खनक कंगना,
कहे छूटा आज अंगना.
देहरी तज देह री! रंग जा,
पिया को आज रंग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ, पी कंह? पुकारूं...
पंचशर साधे निहत्थे पर,
कुसुम आयुध चला, चल.
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चांदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूं...
शनिवार, 11 जुलाई 2009
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