गुरुवार, 14 मई 2009

नवगीत: कहीं धूप क्यों?,

कहीं धूप क्यों?,
कहीं छाँव क्यों??...


सबमें तेरा
अंश समाया,
फ़िर क्यों
भरमाती है काया?

जब पाते तब-
खोते हैं क्यों?
जब खोते तब
पाते पाया।

अपने चलते
सतत दाँव क्यों?...

नीचे-ऊपर,
ऊपर-नीचे।
झूलें सब
तू डोरी खींचे,

कोई डरता,
कोई हँसता।
कोई रोये
अँखियाँ मींचे।

चंचल-घायल
हुए पाँव क्यों?...

तन पिंजरे में
मन बेगाना।
श्वास-आस का
ताना-बाना।

बुनता-गुनता
चुप सर धुनता।
तू परखे, दे
संकट नाना।

सूना पनघट,
मौन गाँव क्यों?...

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