रविवार, 1 नवंबर 2009

नवगीत: भुज भर भेंटो...

आज की रचना:

नवगीत

संजीव 'सलिल'

फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.

घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.

फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.

निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.

फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.

फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो.

फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

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