भर भुजाओं में भेंटो...
बिखरा पड़ा है,
बने तो समेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो.
समय कह रहा है,
खुशी से न फूलो
जमीं में जमा जड़,
गगन पल में छू लो
उजाला दिखे तो
तिमिर को न भूलो
नपना पड़ा, तो
सचाई न मेटो
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
सुविधा का पिंजरा,
सुआ मन का बंदी.
उसूलों की मंडी में
छाई है मंदी.
सियासत ने कर दी
रवायत ही गंदी.
सपना बड़ा,
सच करो, मत लपेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
मिले दैव पथ में
तो आँखें मिला लो.
लिपट कीच में
मन-कमल तो खिला लो.
'सलिल' कोशिशों से
बिगड़ता बना लो.
सरहद पे सरकश
न छोडो, चपेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
Posted by अनुभूति: नव गीत की कार्यशाला में हम at 2:09 AM
Labels: कार्यशाला-4
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Mukta said...
जवाब देंहटाएंवाह वाह!
चौथी कार्यशाला की रचनाएँ प्रारंभ हो गईं बड़ी खुशी हो रही है देखकर। पहले ही नंबर पर सलिल जी की जबरदस्त नवगीत आ गया है।
अपना खड़ा भर भुजाओं में भेंटो क्या खूब लिखा है।
बधाई और स्वागत।
September 1, 2009 2:16 AM
विनय ‘नज़र’ said...
बहुत ख़ूब!
September 1, 2009 4:55 AM
मानसी said...
अरे वाह!
ये तो बहुत ही सुंदर नवगीत बन पड़ा है।
इस कार्यशाला की शुरुआत बहुत ही अच्छी रही।
रचनाकार को बहुत-बहुत बधाई।
नवीन खयाल, नवीन रंग हैं नवगीत के।
September 1, 2009 5:45 AM
मीत said...
उसूलों की मंडी में छाई है मंदी
सियासत ने कर दी रवायत ही गंदी
सपना बड़ा, सच करो, मत लपेटो
बेहद प्रशंसनीय लिखा है...
संजीव जी को बधाई...
मीत
September 1, 2009 5:50 AM
रंजना said...
वाह ! वाह ! वाह ! अतिसुन्दर .........
मंत्रमुग्ध कर लिया इस सुन्दर रचना ने...
September 1, 2009 6:23 AM
HARI SHARMA said...
एक बढिया नवगीत और शानदार शुरुआत
लेकिन वो माल कहा़ है जो बिखरा पडा है
September 1, 2009 8:21 AM
निर्मल सिद्धु - हिन्दी राइटर्स गिल्ड said...
एक बहुत बढ़िया नवगीत,
अति सुन्दर, रचनाकार को बहुत-बहुत बधाई
कार्यशाला के प्रारम्भ होने की सबको मुबारक,
ओपनिंग बहुत अच्छी हुई है।
September 1, 2009 3:29 PM
Harihar said...
बहुत सुन्दर !
September 1, 2009 10:16 PM
arbuda said...
'बिखरा पड़ा है'को बहुत ही व्यापक रूप मिल गया है इस नवगीत से।
शब्दावली बहुत जानदार है। बधाई स्वीकारें।
September 1, 2009 10:22 PM
swati said...
mujhe panktiyan bahut hi sundar lagi.....
shabdon ke chayan me navinta dikhayi padi....
September 2, 2009 3:29 AM
Anonymous said...
नव्गीत की कार्यशाला की शुरुआत होते ही एक बहुत ही सुंदर गीत पढ़ने को मिला-
मिले दैव पथ में तो आँखें मिला लो
लिपट कीच में मन-कमल तो खिला लो
बहुत हुई सुन्दर पंकतिया, बहुत बहुत बधाई
धन्याद
विमल कुमार हेडा
September 2, 2009 3:43 AM
अमित said...
अच्छा लगा यह नवगीत।
बधाई!
सुविधा का पिंजरा, सुआ मन का बंदी
उसूलों की मंडी में छाई है मंदी
सियासत ने कर दी रवायत ही गंदी
सपना बड़ा, सच करो, मत लपेटो
बहुत अच्छी पंक्तियाँ हैं।
September 2, 2009 8:51 AM
vandana singh said...
usulo ki mandi me chhai.....
poora paragraph hi sunder hai aur geet achchha laga
September 2, 2009 5:36 PM
Dr. Smt. ajit gupta said...
अपना खडा भर भुजाओं में भेंटो।
इस पंक्ति का अर्थ समझ नहीं आ रहा, कृपया स्पष्ट करें।
September 3, 2009 8:34 PM
डा. श्याम गुप्त said...
बने तो समेटो, सुन्दर भाव. अच्छा नवगीत ।
September 4, 2009 12:06 AM
HARI SHARMA said...
बहुत ही सुन्दर नवगीत
नये अन्दाज मे़
September 4, 2009 1:00 PM
praveen pandit said...
अत्यंत सुंदर ।
नव गीत वस्तुतः उद्बोधन गीत है, जितना गूढ़ उतना ही सहज।
ऐसी रचना सहेज कर रखने के लिये हैं, ताकि पढ़ते रहिये और सीखते रहिये। बधाई।
प्रवीण पंडित
September 5, 2009 12:22 AM
शशि पाधा said...
एक सुन्दर नवगीत के लिये धन्यवाद ।
बहुत कुछ सीखने को मिलेगा इस बार भी । आभार ।
शशि पाधा
September 5, 2009 12:41 PM
कटारे said...
बहुत सुन्दर नवगीत ।
September 7, 2009 8:21 AM
Dr. Smt. ajit gupta said...
मैंने गीत के बारे में एक प्रश्न किया था, लेकिन मुझे उसका उत्तर नहीं मिला, कृपया दें।
अपना खडा, भर भुजाओं में भेंटों, का अर्थ क्या है?
September 8, 2009 8:36 PM
rachana said...
aap ka likha sada hi sunder hota hai nav geet likhne me aap ko maharath hasil hai.
bahut khoob
saader
rachana
September 9, 2009 6:24 AM
गौतम राजरिशी said...
अब आचार्य सलिल खुद उतर पड़े हैं नयी कार्यशाला में तो शुरूआत तो जबरदस्त होनी ही थी।
एक लाजवाब नवगीत!
September 19, 2009 11:01 PM
एक बेहतरीन उम्दा गीत..बहुत पसंद आया.
जवाब देंहटाएंकोशिशों से बिगड़ता बना लो
जवाब देंहटाएंसुन्दर गीत ...शुभकामनायें ..!!