मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

एक अगीत: बिक रहा ईमान है _संजीव 'सलिल'

:  एक अगीत :

संजीव 'सलिल'


बिक रहा ईमान है



कौन कहता है कि...
मंहगाई अधिक है?

बहुत सस्ता

बिक रहा ईमान है.



जहाँ जाओगे

सहज ही देख लोगे.

बिक रहा

बेदाम ही इंसान है.



कहो जनमत का

यहाँ कुछ मोल है?

नहीं, देखो जहाँ

भारी पोल है.



कर रहा है न्याय

अंधा ले तराजू.

व्यवस्था में हर कहीं

बस झोल है.



आँख का आँसू,

हृदय की भावनाएँ.

हौसला अरमान सपने

समर्पण की कामनाएँ.



देश-भक्ति, त्याग को

किस मोल लोगे?

कहो इबादत को

कैसे तौल लोगे?



आँख के आँसू,

हया लज्जा शरम.

मुफ्त बिकते

कहो सच है या भरम?



क्या कभी इससे सस्ते

बिक़े होंगे मूल्य.

बिक रहे हैं

आज जो निर्मूल्य?



मौन हो अर्थात

सहमत बात से हो.

मान लेता हूँ कि

आदम जात से हो.



जात औ' औकात निज

बिकने न देना.

मुनाफाखोरों को

अब टिकने न देना.



भाव जिनके अधिक हैं

उनको घटाओ.

और जो बेभाव हैं

उनको बढाओ.

****************

गीत: एक कोना कहीं घर में -संजीव 'सलिल'

गीत




एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...

*

याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.

बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.

निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...

*

हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.

बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.

कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...

*

उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.

देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.

स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...

*

साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.

पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.

याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...

*

जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.

आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.

स्वप्न में देखूं तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...


*