Acharya Sanjiv Salil
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नवगीत
संजीव 'सलिल'
चीनी दीपक
दियासलाई,
भारत में
करती पहुनाई...
*
सौदा सभी
उधर है.
पटा पड़ा
बाज़ार है.
भूखा मरा
कुम्हार है.
सस्ती बिकती
कार है.
झूठ नहीं सच
मानो भाई.
भारत में
नव उन्नति आयी...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
श्रम का कोई
रसूख नहीं है.
फसल चर रहे
ठूंठ यहीं हैं.
मची हर कहीं
लूट यहीं है.
अंग्रेजी कुलटा
मन भाई.
हिंदी हिंद में
हुई पराई......
*
दड़बों जैसे
सीमेंटी घर.
तुलसी का
चौरा है बेघर.
बिजली-झालर
है घर-घर..
दीपक रहा
गाँव में मर.
शहर-गाँव में
बढ़ती खाई.
जड़ विहीन
नव पीढी आई...
*
बुधवार, 28 अक्तूबर 2009
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आचार्य सलिल जी
जवाब देंहटाएंसादर अभिवादन आप की ये कविता मैंने एक दो दिन पहले कहीं और पढ़ी थी और टिप्पणी भी की थी वाकई बहुत मर्मस्पर्शी रचना है.आप मेरे ब्लॉग पर आये प्रसन्नता हुई.सबसे ज्यादा प्रसन्नता इस बात से हुई कि आपने सभी कवितायेँ पढीं और उन्हें परखा आगे भी आप से ऐसी ही आशा रखती हूँ
बहुत बहुत धन्यवाद
आभार रचना