गीत
हम गिर-उठकर
खड़े हुए हैं।
जो न गिरे
वे पड़े हुए हैं...
सूरत-सूरत
सुंदर मूरत,
कहीं न कुछ भी
बिना जरूरत।
पल-प्रति पल
जो जिए बदलकर,
जुड़े टूटकर-
जमे पिघलकर।
जो न महकते
सड़े हुए हैं...
कंकर-कंकर
देखे शंकर।
शिव-शव दोनों
ही प्रलयंकर।
मन्दिर-मन्दिर
बजाते घंटे;
पचा प्रसादी-
पलते पंडे।
तकदीरों से
बड़े हुए हैं...
ये भी, वे भी
दोनों कच्चे,
ख़ुद को बड़ा
समझते बच्चे।
सीख न पाते
किंतु सिखाते,
पुष्प वृक्ष से
झडे हुए हैं...
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गीत
> दीपवर्तिका
सदृश जलेंगे
आपद-विपदा
विहँस सहेंगे...
हैं लघु कण
यह सत्य जानते,
पर विराट से
समर ठानते।
पचा न पायें
आप हलाहल,
धार कंठ में-
हम उबारते।
शिवता-सुंदरता
के पथ पर-
सत का कर
गह नित्य बढ़ेंगे...
कहीं न परिमल
हर दल दलदल।
भ्रमर-दंश से
दंशित शतदल।
सलिल-धार
अनवरत प्रवाहित।
शब्द अमरकंटक
से प्रति पल।
लोक नर्मदा
नीति वर्मदा
कार्य शर्मदा
सतत करेंगे...
अजर-अमर हैं
हम अक्षर हैं।
नाद-ताल हैं
सरगम-स्वर हैं।
हम अनादि हैं,
हम अनंत हैं।
सादि-सांत हम
क्षण-भंगुर हैं॥
सच कहते हैं
सब जग सुन ले,
मौत वरेंगे पर न मरेंगे,
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