बुधवार, 26 मई 2010

मुक्तिका: मन का इकतारा.... --संजीव 'सलिल'

 : मुक्तिका :
मन का इकतारा
संजीव 'सलिल'
*
fire_abstract_id203705_size450.jpg
*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
****
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

सोमवार, 24 मई 2010

गीत: ताल देते भँवर रे....... ---आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत:
संजीव 'सलिल'
geetsalila.blogspot.कॉम













साजों की कश्ती से
सुर का संगीत बहा
लहर-लहर चप्पू ले
ताल देते भँवर रे....

थापों की मछलियाँ,
नर्तित हो झूमतीं
नादों-आलापों को
सुन मचलतीं-लूमतीं.
दादुर टरटरा रहे
कच्छप की रास देख-
चक्रवाक चहक रहे
स्तुति सुन सिहर रे....

टन-टन-टन घंटे का
स्वर दिशाएँ नापता.
'नर्मदे हर' घोष गूँज
दस दिश में व्यापता. .
बहते-जलते चिराग
हार नहीं मानते.
ताकत भर तम को पी
डूब हुए अमर रे...
*************

गीत: मिला न उनको पानी.... --संजीव 'सलिल'


गीत:
मिला न उनको पानी....
संजीव 'सलिल'
*


















*
छलनेवाले, छले गए
कह-सुन नित नयी कहानी.
आग लगाते रहे, जले
जब- मिला न उनको पानी....
*
नफरत के खत लिखे अनगिनत
प्रेम संदेश न भेजा.
कली-कुसुम को कुचला लेकिन
काँटा-शूल सहेजा.

याद दिलाई औरों को, अब
याद आ रही नानी....
*
हरियाली के दर पर होती
रेगिस्तानी दस्तक.
खाक उठायें सिर वे जिनका 
सत्ता-प्रति नत मस्तक.

जान हथेली पर ले, भू को
पहना चूनर धानी....
*
अपनी फ़िक्र छोड़कर जो
करते हैं चिंता सबकी.
पाते कृपा वही ईश्वर, गुरु,
गोड़, नियति या रब की.

नहीं आँख में, तो काफी
मरने चुल्लू भर पानी....
*****
http://divyanarmada.blogspot.com

गीत: काला कूट धुआँ....... --संजीव 'सलिल'

गीत:
 संजीव 'सलिल'
*

*

तन-मन, जग-जीवन झुलसाता काला कूट धुआँ.
सच का शंकर हँस पी जाता, सारा झूट धुआँ....

आशा तरसी, आँखें बरसीं,
श्वासा करती जंग.
गायन कर गीतों का, पाती
हर पल नवल उमंग.
रागी अंतस ओढ़े चोला भगवा-जूट धुआँ.....

पंडित हुए प्रवीण, ढाई
आखर से अनजाने.
अर्थ-अनर्थ कर रहे
श्रोता सुनें- नहीं माने.
धर्म-मर्म पर रहा भरोसा, जाता छूट धुआँ.....


आस्था-निष्ठां की नीलामी
खुले आम होती.
बेगैरत हँसते हैं, गैरत
सुबह-शाम रोती.
अनजाने-अनचाहे जाता धीरज टूट धुआँ...


************
दिव्यनार्मादा.ब्लागस्पाट.कॉम