'बड़ा दिन'
संजीव 'सलिल'
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
http://divyanarmada.blogspot.com/
शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
बुधवार, 23 दिसंबर 2009
स्मृति दीर्घा: संजीव 'सलिल'
स्मृति दीर्घा:
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
***********
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
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मंगलवार, 22 दिसंबर 2009
दोहा गीतिका 'सलिल'
(अभिनव प्रयोग)
दोहा गीतिका
'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?
बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।
फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।
हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।
सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।
हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।
हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।
तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..
दोहा गीतिका
'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?
बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।
फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।
हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।
सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।
हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।
हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।
तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
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तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..
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