मंगलवार, 17 अगस्त 2010
सामयिक गीत: आज़ादी की साल-गिरह संजीव 'सलिल'
सामयिक गीत:
आज़ादी की साल-गिरह
संजीव 'सलिल'
*
*
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
चमक-दमक, उल्लास-खुशी,
कुछ चेहरों पर तनिक दिखी.
सत्ता-पद-धनवालों की-
किस्मत किसने कहो लिखी?
आम आदमी पूछ रहा
क्या उसकी है जगह कहीं?
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
पाती बांधे आँखों पर,
अंधा तौल रहा है न्याय.
संसद धृतराष्ट्री दरबार
कौरव मिल करते अन्याय.
दु:शासन शासनकर्ता
क्यों?, क्या इसकी कहो वज़ह?
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
उच्छ्रंखलता बना स्वभाव.
अनुशासन का हुआ अभाव.
सही-गलत का भूले फर्क-
केर-बेर का विषम निभाव.
दगा देश के साथ करें-
कहते सच को मिली फतह.
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
निज भाषा को त्याग रहे,
पर-भाषा अनुराग रहे.
परंपरा के ईंधन सँग
अधुनातनता आग दहे.
नागफनी की फसलों सँग-
कहें कमल से: 'जा खुश रह.'
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
संस्कार को भूल रहें.
मर्यादा को तोड़ बहें.
अपनों को, अपनेपन को,
सिक्कों खातिर छोड़ रहें.
श्रम-निष्ठा के शाहों को
सुख-पैदल मिल देते शह.
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
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