नव गीत
कुटिया हो या महल
हर जगह दीवाली है...
*
तप्त भास्कर,
त्रस्त धरा,
थे पस्त जीव सब.
राहत पाई,
मेघदूत
पावस लाये जब.
ताल-तालियाँ-
नदियाँ बहरीन,
उमंगें जागीं.
फसलें उगीं,
आसें उमगीं,
श्वासें भागीं.
करें प्रकाशित,
सकल जगत को
खुशहाली है.
कुटिया हो या महल
हर जगह दीवाली है....
*
रमें राम में,
किन्तु शारदा को
मत भूलें.
पैर जमाकर
'सलिल' धरा पर
नभ को छू लें.
किया अमंगल यहाँ-
वहाँ मंगल
हो कैसे?
मिटा विषमता
समता लायें
जैसे-तैसे.
मिटा अमावस,
लायें पूनम
खुशहाली है.
कुटिया हो या महल
हर जगह दीवाली है.
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सोमवार, 12 अक्तूबर 2009
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shanno ने कहा…
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर दीवाली की रचना.
Saturday, October 17, 2009 2:43:00 AM
श्याम सखा 'श्याम' ने कहा…
abhinav rachna par badhaaee
deep parv ki subhkaamnayen
shyam skha shyam
Saturday, October 17, 2009 8:18:00 AM
मनोज कुमार ने कहा…
बहुत अच्छा और सार्थक नवगीत. मानों शब्दों से खेल रहे हों आप और एक-एक शब्द चुनकर पिरोये गए हैं इस नवगीत की माला में.
Saturday, October 17, 2009 8:24:00 AM