लोकतंत्र के
बनें मसीहा
आओ, लड़ें चुनाव।
बेचें अपनी
निष्ठाओं को,
रोज बढाएं भाव...
जय-जयकार
करें ख़ुद अपनी
सदा अलग हो
कथनी-करनी।
श्वेत वसन
काला अंतर्मन
स्वार्थ-सिद्धि की
माला जपनी।
अधरों पर
मुस्कान छद्म हो,
कभी न
खाएं ताव...
जन-गण को
ठेंगा दिखलायें।
जन-मत को
तत्काल भुलाएँ।
सिद्धांतों को
बेच-खरीदें-
जन-मन को
हर रोज लुभाएँ।
दिन दूने औ'
रात चौगुने
जीत बढाएं भाव...
चमचे पालें,
भीड़ जुटाएं।
अमन-चैन को
आग लगाएं।
जुलुस निकालें,
पत्थर फेंकें,
अख़बारों में
चित्र छ्पायें।
नकली आँसू,
असली माला
दोनों अपना दांव...
जाति, क्षेत्र,
भाषा के झगडे।
मजहब के
नुस्खे हैं तगडे
बंदर-बाँट
नीति अपनाएं
कभी न सुलझें
झंझट-झगडे।
कोशिश अपनी
हर घर में हो,
मन-मन में अलगाव...
जाए भाड़ में
देश बिचारा
हमको तो
सत्ता-पद प्यारा
जंगल काटें,
पर्वत खोदें।
बेच-करें
निज वारा-न्यारा।
मुंह में राम
बगल में छूरी
अपना सही स्वभाव...
*******
मंगलवार, 26 अगस्त 2008
गीत: स्वप्नों को आने दो
स्वप्नों को आने दो,
द्वार खटखटाने दो।
स्वप्नों की दुनिया में
ख़ुद को खो जाने दो...
जब हम थक सोते हैं,
हार मान रोते हैं।
सपने आ चुपके से
उम्मीदें बोते हैं।
कोशिश का हल-बक्खर
नित यथार्थ धरती पर
आशा की मूठ थाम
अनवरत चलाने दो...
मन को मत भरमाओ,
सच से मत शर्माओ।
साज उठा, तार छेड़,
राग नया निज गाओ।
ऊषा की लाली ले,
नील गगन प्याली ले।
कर को कर तूलिका
मन को कुछ बनाने दो...
नर्मदा सा बहना है।
निर्मलता गहना है।
कालकूट पान कर
कंठ-धार गहना है।
उत्तर दो उत्तर को,
दक्षिण से आ अगस्त्य।
बहुत झुका विन्ध्य दीं
अब तो सिर उठाने दो...
क्यों गुपचुप बैठे हो?
विजन वन में पैठे हो।
धर्म-कर्म मर्म मान,
किसी से न हेठे हो।
आँख मूँद चलना मत,
ख़ुद को ख़ुद छलना मत।
ऊसर में आशान्कुर
पल्लव उग आने दो...
********
द्वार खटखटाने दो।
स्वप्नों की दुनिया में
ख़ुद को खो जाने दो...
जब हम थक सोते हैं,
हार मान रोते हैं।
सपने आ चुपके से
उम्मीदें बोते हैं।
कोशिश का हल-बक्खर
नित यथार्थ धरती पर
आशा की मूठ थाम
अनवरत चलाने दो...
मन को मत भरमाओ,
सच से मत शर्माओ।
साज उठा, तार छेड़,
राग नया निज गाओ।
ऊषा की लाली ले,
नील गगन प्याली ले।
कर को कर तूलिका
मन को कुछ बनाने दो...
नर्मदा सा बहना है।
निर्मलता गहना है।
कालकूट पान कर
कंठ-धार गहना है।
उत्तर दो उत्तर को,
दक्षिण से आ अगस्त्य।
बहुत झुका विन्ध्य दीं
अब तो सिर उठाने दो...
क्यों गुपचुप बैठे हो?
विजन वन में पैठे हो।
धर्म-कर्म मर्म मान,
किसी से न हेठे हो।
आँख मूँद चलना मत,
ख़ुद को ख़ुद छलना मत।
ऊसर में आशान्कुर
पल्लव उग आने दो...
********
गीत: संध्या के माथे पर
संध्या के माथे पर
सूरज सिंदूर।
मोह रहा मन को
नीलाभी नभ-नूर...
बांचते परिंदे नित
प्रेम की कथाएँ।
घोंसले छिपाते
अनुबंध की व्यथाएं।
अंतर के मंतर से
अंतर्मन घायल-
भुला रही भाषायें
नेह की कथाएं।
अपने ही सपने
कर देते हैं चूर...
चिमनियाँ उगलती हैं,
रात-दिन धुंआ।
खान-कारखाने हैं,
मौत का कुँआ।
पूँजी के हाथ बिके
कौशल बेभाव-
भूखा सो गया, श्रम का
जठर फ़िर मुआं।
मदमाती हूटर की
कर्कश ध्वनि क्रूर...
शिक्षा की आहट,
नव कोशिश का दौर।
कोयल की कूक कहे
आम रहे बौर।
खास का न ग्रास बने
आम जन बचाओ।
चेतना मचान पर
सच की हो ठौर।
मृगनयनी नियतिनटी
जाने क्यों सूर?...
उषा वन्दनाएँ
रह गयीं अनपढ़ी।
दोपहर की भाग-दौड़
हाय अनगढ़ी।
संध्या को मोहिनी
प्रार्थना पदी।
साधना से अर्चना
कोसों है दूर...
लें-देन लील गया
निर्मल विश्वास।
स्वार्थहीन संबधों
पर है खग्रास।
तज गणेश अंक लिटा
लिखा रहे आज-
गीत-ग़ज़ल मेनका को
महा ऋषि व्यास।
प्रथा पूत तज चढाये
माथे पर धूर...
सीमेंटी भवन निठुर
लील लें पलाश
नेहहीन नातों की
ढोता युग लाश
तमस से अमावस के
ऊगेगी भोर-
धर्म-मर्म कर्म मान
लक्ष्य लें तलाश।
धीर धरो, पीर सहो,
काटो नासूर...
बहुत झुका विन्ध्य,
सिर उठाये-हँसे।
नर्मदा को जोहिला का
दंश न डँसे।
गुरु-गौरव द्रोण करे
पुनः न नीलाम-
कीचक के कपट में
सैरंध्री न फंसे।
'सलिल' सत्य कान्हा को
भज बनकर सूर...
*****
सूरज सिंदूर।
मोह रहा मन को
नीलाभी नभ-नूर...
बांचते परिंदे नित
प्रेम की कथाएँ।
घोंसले छिपाते
अनुबंध की व्यथाएं।
अंतर के मंतर से
अंतर्मन घायल-
भुला रही भाषायें
नेह की कथाएं।
अपने ही सपने
कर देते हैं चूर...
चिमनियाँ उगलती हैं,
रात-दिन धुंआ।
खान-कारखाने हैं,
मौत का कुँआ।
पूँजी के हाथ बिके
कौशल बेभाव-
भूखा सो गया, श्रम का
जठर फ़िर मुआं।
मदमाती हूटर की
कर्कश ध्वनि क्रूर...
शिक्षा की आहट,
नव कोशिश का दौर।
कोयल की कूक कहे
आम रहे बौर।
खास का न ग्रास बने
आम जन बचाओ।
चेतना मचान पर
सच की हो ठौर।
मृगनयनी नियतिनटी
जाने क्यों सूर?...
उषा वन्दनाएँ
रह गयीं अनपढ़ी।
दोपहर की भाग-दौड़
हाय अनगढ़ी।
संध्या को मोहिनी
प्रार्थना पदी।
साधना से अर्चना
कोसों है दूर...
लें-देन लील गया
निर्मल विश्वास।
स्वार्थहीन संबधों
पर है खग्रास।
तज गणेश अंक लिटा
लिखा रहे आज-
गीत-ग़ज़ल मेनका को
महा ऋषि व्यास।
प्रथा पूत तज चढाये
माथे पर धूर...
सीमेंटी भवन निठुर
लील लें पलाश
नेहहीन नातों की
ढोता युग लाश
तमस से अमावस के
ऊगेगी भोर-
धर्म-मर्म कर्म मान
लक्ष्य लें तलाश।
धीर धरो, पीर सहो,
काटो नासूर...
बहुत झुका विन्ध्य,
सिर उठाये-हँसे।
नर्मदा को जोहिला का
दंश न डँसे।
गुरु-गौरव द्रोण करे
पुनः न नीलाम-
कीचक के कपट में
सैरंध्री न फंसे।
'सलिल' सत्य कान्हा को
भज बनकर सूर...
*****
नवगीत : ओढ़ कुहासे की चादर
नवगीत :
ओढ़ कुहासे की चादर
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओढ़ कुहासे की चादर,
धरती लगाती दादी।
ऊँघ रहा सतपुडा,
लपेटे मटमैली खादी...
सूर्य अंगारों की सिगडी है,
ठण्ड भगा ले भैया।
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया।
तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी...
कुहरा छाया संबंधों पर,
रिश्तों की गरमी पर।
हुए कठोर आचरण अपने,
कुहरा है नरमी पर।
बेशरमी नेताओं ने,
पहनी-ओढी-लादी...
नैतिकता की गाय काँपती,
संयम छत टपके।
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके।
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...
भावनाओं को कामनाओं ने,
हरदम ही कुचला।
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फँसा-फिसला।
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी...
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,
फ़िर-फ़िर बसना है।
बस न रहा ख़ुद पर तो,
परबस 'सलिल' तरसना है।
रसना रस ना ले,
लालच ने लज्जा बिकवा दी...
हर 'मावस पश्चात्
पूर्णिमा लाती उजियारा।
मृतिका दीप काटता तम् की,
युग-युग से कारा।
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी...
*****
ओढ़ कुहासे की चादर
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओढ़ कुहासे की चादर,
धरती लगाती दादी।
ऊँघ रहा सतपुडा,
लपेटे मटमैली खादी...
सूर्य अंगारों की सिगडी है,
ठण्ड भगा ले भैया।
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया।
तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी...
कुहरा छाया संबंधों पर,
रिश्तों की गरमी पर।
हुए कठोर आचरण अपने,
कुहरा है नरमी पर।
बेशरमी नेताओं ने,
पहनी-ओढी-लादी...
नैतिकता की गाय काँपती,
संयम छत टपके।
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके।
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...
भावनाओं को कामनाओं ने,
हरदम ही कुचला।
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फँसा-फिसला।
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी...
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,
फ़िर-फ़िर बसना है।
बस न रहा ख़ुद पर तो,
परबस 'सलिल' तरसना है।
रसना रस ना ले,
लालच ने लज्जा बिकवा दी...
हर 'मावस पश्चात्
पूर्णिमा लाती उजियारा।
मृतिका दीप काटता तम् की,
युग-युग से कारा।
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी...
*****
शुक्रवार, 22 अगस्त 2008
'रिश्ते'
दिल को दिल से जोड़ते रिश्ते मिलते हाथ
अपनी मंजिल पा सकें कदम अगर हों साथ
'सलिल' समूची ज़िन्दगी रिश्तों की जागीर
रिश्तों से ही आदमी बने गरीब-अमीर
रिश्ते-नाते घोलते प्रति पल मधुर मिठास
दाना रिश्ते पालते नादां करें खलास
रिश्ते ही इंसान की लिखते हैं तकदीर
रिश्ते बिन नाकाम ही होती हर तदबीर
बिगड़ी बात बने नहीं बिन रिश्ते लो मान
रिश्ते हैं तो लुटा दो एक दूजे पर जान
रिश्ते हैं रसनिधि अमर रिश्ते हैं रसखान
रिश्ते ही रसलीन हो हो जाते भगवान
रिश्ते ही करते अता आन- बान औ' शान
रिश्ते हित शैतान भी बन जाता इंसान
रिश्ते होली दिवाली रिश्ते क्रिसमस ईद
रिश्ते-नाते निभाना सचमुच 'सलिल' मुफीद
रिश्ते मधुर न रख सके लडे हिंद औ' पाक
रिश्तों में बिखराव गर तो रिश्ते नापाक
धर्म दीन मजहब नहीं आदम की पहचान
जो रिश्तों को निभाता सलिल वही गुणवान
नेह नर्मदा में नहा नित्य नवल जज-धार
रिश्ते सच्चे पलकर सलिल लुटा दे प्यार
प्रेषक: आचार्य संजीव 'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा
ई मेल; सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम">सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
वार्ता: ०७६१२४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४
अपनी मंजिल पा सकें कदम अगर हों साथ
'सलिल' समूची ज़िन्दगी रिश्तों की जागीर
रिश्तों से ही आदमी बने गरीब-अमीर
रिश्ते-नाते घोलते प्रति पल मधुर मिठास
दाना रिश्ते पालते नादां करें खलास
रिश्ते ही इंसान की लिखते हैं तकदीर
रिश्ते बिन नाकाम ही होती हर तदबीर
बिगड़ी बात बने नहीं बिन रिश्ते लो मान
रिश्ते हैं तो लुटा दो एक दूजे पर जान
रिश्ते हैं रसनिधि अमर रिश्ते हैं रसखान
रिश्ते ही रसलीन हो हो जाते भगवान
रिश्ते ही करते अता आन- बान औ' शान
रिश्ते हित शैतान भी बन जाता इंसान
रिश्ते होली दिवाली रिश्ते क्रिसमस ईद
रिश्ते-नाते निभाना सचमुच 'सलिल' मुफीद
रिश्ते मधुर न रख सके लडे हिंद औ' पाक
रिश्तों में बिखराव गर तो रिश्ते नापाक
धर्म दीन मजहब नहीं आदम की पहचान
जो रिश्तों को निभाता सलिल वही गुणवान
नेह नर्मदा में नहा नित्य नवल जज-धार
रिश्ते सच्चे पलकर सलिल लुटा दे प्यार
प्रेषक: आचार्य संजीव 'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा
ई मेल; सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम">सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
वार्ता: ०७६१२४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४
सदस्यता लें
संदेश (Atom)