नवगीत:
संजीव 'सलिल'
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
कोहरे से
गले मिलते भाव.
निर्मला हैं
बिम्ब के
नव ताव..
शिल्प पर शैदा
हुई रजनी-
रवि विमल
सम्मान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
फूल-पत्तों पर
जमी है ओस.
घास पाले को
रही है कोस.
हौसला सज्जन
झुकाए सिर-
मानसी का
मान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
नमन पूनम को
करे गिरि-व्योम.
शारदा निर्मल,
निनादित ॐ.
नर्मदा का ओज
देख मनोज-
'सलिल' संग
गुणगान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
खुदी पर
अभिमान करता है...
******
शनिवार, 16 जनवरी 2010
बुधवार, 13 जनवरी 2010
नवगीत: हवा में ठंडक संजीव 'सलिल'
नवगीत:
हवा में ठंडक
संजीव 'सलिल'
हवा में ठंडक बहुत है
काँपता है गात सारा
ठिठुरता सूरज बिचारा
ओस-पाला
नाचते हैं-
हौसलों को आँकते हैं
युवा में खुंदक बहुत है
गर्मजोशी चुक न पाए,
पग उठा जो रुक न पाए
शेष चिंगारी
अभी भी-
ज्वलित अग्यारी अभी भी
दुआ दुःख-भंजक बहुत है
हवा बर्फीली-विषैली,
नफरतों के साथ फैली
भेद मत के
सह सकें हँस-
एक मन हो रह सकें हँस
स्नेह सुख-वर्धक बहुत है
चिमनियों का धुँआ गंदा
सियासत है स्वार्थ-फंदा
उठो! जन-गण
को जगाएँ-
सृजन की डफली बजाएँ
चुनौती घातक बहुत है
नियामक हम आत्म के हों,
उपासक परमात्म के हों.
कोहरा
भास्कर प्रखर हों-
मौन में वाणी मुखर हों
साधना ऊष्मक बहुत है
-- संजीव सलिल
हवा में ठंडक
संजीव 'सलिल'
हवा में ठंडक बहुत है
काँपता है गात सारा
ठिठुरता सूरज बिचारा
ओस-पाला
नाचते हैं-
हौसलों को आँकते हैं
युवा में खुंदक बहुत है
गर्मजोशी चुक न पाए,
पग उठा जो रुक न पाए
शेष चिंगारी
अभी भी-
ज्वलित अग्यारी अभी भी
दुआ दुःख-भंजक बहुत है
हवा बर्फीली-विषैली,
नफरतों के साथ फैली
भेद मत के
सह सकें हँस-
एक मन हो रह सकें हँस
स्नेह सुख-वर्धक बहुत है
चिमनियों का धुँआ गंदा
सियासत है स्वार्थ-फंदा
उठो! जन-गण
को जगाएँ-
सृजन की डफली बजाएँ
चुनौती घातक बहुत है
नियामक हम आत्म के हों,
उपासक परमात्म के हों.
कोहरा
भास्कर प्रखर हों-
मौन में वाणी मुखर हों
साधना ऊष्मक बहुत है
-- संजीव सलिल
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