नव गीत
आचार्य संजीव 'सलिल'
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
कंकर को
शंकर करते हो.
मति से
मानव रचते हो.
खेल खेलते
श्वास-आस का,
माया फैलाकर
ठगते हो.
तट पर धूप,
तीर पर छाया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
कभी
रुदन दे.
कभी
हास दे.
कभी
चैन दे.
कभी त्रास दे.
तुमने नित
जग को भरमाया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
जब पाया,
तब पाया-खोया.
अधर हँसा,
लख नयना रोया.
जगा-जगा
जग हार गया पर,
मूरख मन
सोया का सोया.
ढपली फोड़
बेसुरा गया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
तन को
बेहद पीर हो रही.
मन को
तनिक न धीर हो रही.
कृपा करो
हे करुणासागर!
द्रुपदसुता
नित चीर खो रही
टेर-टेर कर
स्वर थर्राया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
दीप जलाया
नीचे तम है.
तूने दिया
प्रचुर पर कम है.
'मैं' का मारा
है हर मानव,
बिसराया क्यों
उसने 'हम' है.
हर अपने ने
धता बताया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
रविवार, 27 सितंबर 2009
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बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहरिनाम तुम्ह तुम्हारी अदभुत माया ...
आभार
बहुत ही सुन्दर नवगीत है। नवगीत की पाठशाला पर अपना नवगीत पोस्ट किया था लेकिन वहाँ तो सन्नाटा पसरा है। आप ही उस पर अपनी टिप्पणी दें तो पाठशाला का कुछ अर्थ बनेगा।
जवाब देंहटाएंajab tumhari maya
जवाब देंहटाएंkahin dhoop khin chaya