: एक अगीत :
संजीव 'सलिल'
बिक रहा ईमान है
कौन कहता है कि...
मंहगाई अधिक है?
बहुत सस्ता
बिक रहा ईमान है.
जहाँ जाओगे
सहज ही देख लोगे.
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है.
कहो जनमत का
यहाँ कुछ मोल है?
नहीं, देखो जहाँ
भारी पोल है.
कर रहा है न्याय
अंधा ले तराजू.
व्यवस्था में हर कहीं
बस झोल है.
आँख का आँसू,
हृदय की भावनाएँ.
हौसला अरमान सपने
समर्पण की कामनाएँ.
देश-भक्ति, त्याग को
किस मोल लोगे?
कहो इबादत को
कैसे तौल लोगे?
आँख के आँसू,
हया लज्जा शरम.
मुफ्त बिकते
कहो सच है या भरम?
क्या कभी इससे सस्ते
बिक़े होंगे मूल्य.
बिक रहे हैं
आज जो निर्मूल्य?
मौन हो अर्थात
सहमत बात से हो.
मान लेता हूँ कि
आदम जात से हो.
जात औ' औकात निज
बिकने न देना.
मुनाफाखोरों को
अब टिकने न देना.
भाव जिनके अधिक हैं
उनको घटाओ.
और जो बेभाव हैं
उनको बढाओ.
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सामयिक और सटीक रचना । बडी ही सरलता से सब कुछ कह दिया आपने
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