स्मृति गीत:
संजीव 'सलिल'
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
अलस सवेरे
उठते ही तुम,
बिन आलस्य
काम में जुटतीं.
सिगडी, सनसी,
चिमटा, चमचा
चौके में
वाद्यों सी बजतीं.
देर हुई तो
हमें जगाने
टेर-टेर
आवाज़ लगाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
जेल निरीक्षण
कर आते थे,
नित सूरज
उगने के पहले.
तव पाबंदी,
श्रम, कर्मठता
से अपराधी
रहते दहले.
निज निर्मित
व्यक्तित्व, सफलता
पाकर तुमने
सहज पचाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
माँ!-पापा!
संकट के संबल
गए छोड़कर
हमें अकेला.
विधि-विधान ने
हाय! रख दिया
है झिंझोड़कर
विकट झमेला.
तुम बिन
हर त्यौहार अधूरा,
खुशी पराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
यह सूनापन
भी हमको
जीना ही होगा
गए मुसाफिर.
अमिय-गरल
समभावी हो
पीना ही होगा
कल की खातिर.
अब न
शीश पर छाँव,
धूप-बरखा मंडराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
वे क्षर थे,
पर अक्षर मूल्यों
को जीते थे.
हमने देखा.
कभी न पाया
ह्रदय-हाथ
पल भर रीते थे
युग ने लेखा.
सुधियों का
संबल दे
प्रति पल राह दिखाई..
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
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Udan Tashtari ने कहा…
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत!!
November 4, 2009 6:15 AM
शरद कोकास said...
जवाब देंहटाएंसंजीव जी आज बहुत दिनों पश्चात इधर आना हुआ । यह गीत सुन्दर लगा । और कैसे है आप ? रमेश जी से हमारी मुलाकात होती रहती है आपको याद करते है ।
November 3, 2009 10:32 PM
शरद कोकास ने कहा…
जवाब देंहटाएंपिता के एक पुत्र के चरित्र निर्माण मे योगदान का बखान करती यह सुन्दर कविता है । बधाई।
November 4, 2009 12:20 AM