हम सब
माटी के पुतले है...
*
कुछ पाया
सोचा पौ बारा.
फूल हर्ष से
हुए गुबारा.
चार कदम चल
देख चतुर्दिक-
कुप्पा थे ज्यों
मैदां मारा.
फिसल पड़े तो
सच जाना यह-
बुद्धिमान बनते,
पगले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
भू पर खड़े,
गगन को छूते.
कुछ न कर सके
अपने बूते.
बने मिया मिट्ठू
अपने मुँह-
खुद को नाहक
ऊँचा कूते.
खाई ठोकर
आँख खुली तो
देखा जिधर
उधर घपले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
नीचे से
नीचे को जाते.
फिर भी
खुद को उठता पाते.
आँख खोलकर
स्वप्न देखते-
फिरते मस्ती
में मदमाते.
मिले सफलता
मिट्टी लगती.
अँधियारे
लगते उजले हैं.
देखा जिधर
उधर घपले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
***************
गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009
सोमवार, 28 सितंबर 2009
नव गीत:भर भुजाओं में भेंटो...
भर भुजाओं में भेंटो...
बिखरा पड़ा है,
बने तो समेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो.
समय कह रहा है,
खुशी से न फूलो
जमीं में जमा जड़,
गगन पल में छू लो
उजाला दिखे तो
तिमिर को न भूलो
नपना पड़ा, तो
सचाई न मेटो
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
सुविधा का पिंजरा,
सुआ मन का बंदी.
उसूलों की मंडी में
छाई है मंदी.
सियासत ने कर दी
रवायत ही गंदी.
सपना बड़ा,
सच करो, मत लपेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
मिले दैव पथ में
तो आँखें मिला लो.
लिपट कीच में
मन-कमल तो खिला लो.
'सलिल' कोशिशों से
बिगड़ता बना लो.
सरहद पे सरकश
न छोडो, चपेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
Posted by अनुभूति: नव गीत की कार्यशाला में हम at 2:09 AM
Labels: कार्यशाला-4
बिखरा पड़ा है,
बने तो समेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो.
समय कह रहा है,
खुशी से न फूलो
जमीं में जमा जड़,
गगन पल में छू लो
उजाला दिखे तो
तिमिर को न भूलो
नपना पड़ा, तो
सचाई न मेटो
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
सुविधा का पिंजरा,
सुआ मन का बंदी.
उसूलों की मंडी में
छाई है मंदी.
सियासत ने कर दी
रवायत ही गंदी.
सपना बड़ा,
सच करो, मत लपेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
मिले दैव पथ में
तो आँखें मिला लो.
लिपट कीच में
मन-कमल तो खिला लो.
'सलिल' कोशिशों से
बिगड़ता बना लो.
सरहद पे सरकश
न छोडो, चपेटो.
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो...
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रविवार, 27 सितंबर 2009
नव गीत: हे हरि! अजब तुम्हारी माया...
नव गीत
आचार्य संजीव 'सलिल'
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
कंकर को
शंकर करते हो.
मति से
मानव रचते हो.
खेल खेलते
श्वास-आस का,
माया फैलाकर
ठगते हो.
तट पर धूप,
तीर पर छाया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
कभी
रुदन दे.
कभी
हास दे.
कभी
चैन दे.
कभी त्रास दे.
तुमने नित
जग को भरमाया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
जब पाया,
तब पाया-खोया.
अधर हँसा,
लख नयना रोया.
जगा-जगा
जग हार गया पर,
मूरख मन
सोया का सोया.
ढपली फोड़
बेसुरा गया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
तन को
बेहद पीर हो रही.
मन को
तनिक न धीर हो रही.
कृपा करो
हे करुणासागर!
द्रुपदसुता
नित चीर खो रही
टेर-टेर कर
स्वर थर्राया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
दीप जलाया
नीचे तम है.
तूने दिया
प्रचुर पर कम है.
'मैं' का मारा
है हर मानव,
बिसराया क्यों
उसने 'हम' है.
हर अपने ने
धता बताया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
आचार्य संजीव 'सलिल'
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
कंकर को
शंकर करते हो.
मति से
मानव रचते हो.
खेल खेलते
श्वास-आस का,
माया फैलाकर
ठगते हो.
तट पर धूप,
तीर पर छाया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
कभी
रुदन दे.
कभी
हास दे.
कभी
चैन दे.
कभी त्रास दे.
तुमने नित
जग को भरमाया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
जब पाया,
तब पाया-खोया.
अधर हँसा,
लख नयना रोया.
जगा-जगा
जग हार गया पर,
मूरख मन
सोया का सोया.
ढपली फोड़
बेसुरा गया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
तन को
बेहद पीर हो रही.
मन को
तनिक न धीर हो रही.
कृपा करो
हे करुणासागर!
द्रुपदसुता
नित चीर खो रही
टेर-टेर कर
स्वर थर्राया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
दीप जलाया
नीचे तम है.
तूने दिया
प्रचुर पर कम है.
'मैं' का मारा
है हर मानव,
बिसराया क्यों
उसने 'हम' है.
हर अपने ने
धता बताया.
हे हरि!
अजब तुम्हारी माया...
*
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