नवगीत
आचार्य संजीव 'सलिल'
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
करो-मरो का
चला गया युग.
समय आज
सहकार का.
महाजनी के
बीत गये दिन.
आज राज
बटमार का.
इज्जत से
जीना है यदि तो,
सज्जन घर-घुस
शीश बचायें.
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
आपा-धापी,
गुंडागर्दी.
हुई सभ्यता
अभिनव नंगी.
यही गनीमत
पहने चिथड़े.
ओढे है
आदर्श फिरंगी.
निज माटी में
नहीं जमीन जड़,
आसमान में
पतंग उडाएं.
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
लेना-देना
सदाचार है.
मोल-भाव
जीवनाधार है.
क्रय-विक्रय है
विश्व-संस्कृति.
लूट-लुटाये
जो-उदार है.
निज हित हित
तज नियम कायदे.
स्वार्थ-पताका
मिल फहरायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
*****************
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आचार्य जी,
जवाब देंहटाएंइस दौर का कच्चा चिट्ठा लगा यह नवगीत।
लेना देना सदाचार है
मोलभाव जीवनाधार है
क्रय-विक्रय है विश्व संस्कृति
लूट-लुटायें जो उदार हैं
निज हित हित तज नियम कायदे
स्वार्थ-पताका मिल फहरायें
आओ!. मिलकर बाँटे-खायें
बहुत ही अच्छा लगा यह बंद।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
सुंदर विचारों से युक्त रचना के लिए शुक्रिया !!
जवाब देंहटाएंआओ मिलकर बाँटे खाएं,
जवाब देंहटाएंसजी दीवाली
दीपक बोला
तेल पी गयी
बाती सारी
इस मंहगाई में
इतना मिल पाए
आओ मिलकर बाँटे खाएं।
दीपावली की शुभकामनाएं और हम तो परस्पर प्रेम बाँटकर ही आनन्द लेंगे।
वाह वाह सटीक समयानुकूल रचना । आप को बधाई कविता की और दीवाली की भी ।
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