मंगलवार, 31 अगस्त 2010

गीत: मंजिल मिलने तक चल अविचल..... संजीव 'सलिल'

गीत:
मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
संजीव 'सलिल'
*

















*
लिखें गीत हम नित्य न भूलें, है कोई लिखवानेवाला.
कौन मौन रह मुखर हो रहा?, वह मन्वन्तर और वही पल.....
*
दुविधाओं से दूर रही है, प्रणय कथा कलियों-गंधों की.
भँवरों की गुन-गुन पर हँसतीं, प्रतिबंधों की व्यथा-कथाएँ.
सत्य-तथ्य से नहीं कथ्य ने  तनिक निभाया रिश्ता-नाता
पुजे सत्य नारायण लेकिन, सत्भाषी सीता वन जाएँ.

धोबी ने ही निर्मलता को लांछित किया, पंक को पाला
तब भी, अब भी सच-साँचे में असच न जाने क्यों पाया ढल.....
*
रीत-नीत को बिना प्रीत के, निभते देख हुआ उन्मन जो
वही गीत मनमीत-जीतकर, हार गया ज्यों साँझ हो ढली.
रजनी के आँसू समेटकर, तुहिन-कणों की भेंट उषा को-
दे मुस्का श्रम करे दिवस भर, संध्या हँसती पुलक मनचली.

मेघदूत के पूत पूछते, मोबाइल क्यों नहीं कर दिया?
यक्ष-यक्षिणी बैकवर्ड थे, चैट न क्यों करते थे पल-पल?.....
*
कविता-गीत पराये लगते, पोयम-राइम जिनको भाते.
ब्रेक डांस के उन दीवानों को अनजानी लचक नृत्य की.
सिक्कों की खन-खन में खोये, नहीं मंजीरे सुने-बजाये
वे क्या जानें कल से कल तक चले श्रंखला आज-कृत्य की.

मानक अगर अमानक हैं तो, चालक अगर कुचालक हैं तो
मति-गति , देश-दिशा को साधे, मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
*******
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम 

गीत: आपकी सद्भावना में... संजीव 'सलिल'

गीत:

आपकी सद्भावना में...

संजीव 'सलिल'
*











*
आपकी सद्भावना में कमल की परिमल मिली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*
उषा की ले लालिमा रवि-किरण आई है अनूप.
चीर मेघों को गगन पर है प्रतिष्टित दैव भूप..
दुपहरी के प्रयासों का करे वन्दन स्वेद-बूँद-
साँझ की झिलमिल लरजती, रूप धरता जब अरूप..

ज्योत्सना की रश्मियों पर मुग्ध रजनी मनचली.
हृदय-कलिका नवल आशा पा पुलककर फिर खिली.....
*
है अमित विस्तार श्री का, अजित है शुभकामना.
अपरिमित है स्नेह की पुष्पा-परिष्कृत भावना..
परे तन के अरे! मन ने विजन में रचना रची-
है विदेहित देह विस्मित अक्षरी कर साधना.

अर्चना भी, वंदना भी, प्रार्थना सोनल फली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*
मौन मन्वन्तर हुआ है, मुखरता तुहिना हुई.
निखरता है शौर्य-अर्णव, प्रखरता पद्मा कुई..
बिखरता है 'सलिल' पग धो मलिनता को विमल कर-
शिखरता का बन गयी आधार सुषमा अनछुई..

भारती की आरती करनी हुई सार्थक भली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*******
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

गीत: आराम चाहिए... संजीव 'सलिल' *

गीत:

आराम चाहिए...

संजीव 'सलिल'
*











हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे हैं.
देश भाड़ में जाये हमें क्या?
सुविधाओं संग काम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
स्वार्थ साधते सदा प्रशासक.
शांति-व्यवस्था के खुद नाशक.
अधिनायक हैं लोकतंत्र के-
हम-वे दुश्मन से भी घातक.
अवसरवादी हैं हम पक्के
लेन-देन  बेनाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
सौदे करते बेच देश-हित,
घपले-घोटाले करते नित.
जो चाहो वह काम कराओ-
पट भी अपनी, अपनी ही चित.
गिरगिट जैसे रंग बदलते-
हमको ऐश तमाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
वादे करते, तुरत भुलाते.
हर अवसर को लपक भुनाते.
हो चुनाव तो जनता ईश्वर-
जीत उन्हें ठेंगा दिखलाते.
जन्म-सिद्ध अधिकार लूटना
'सलिल' स्वर्ग सुख-धाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
****************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

*

गीत पुकार संजीव 'सलिल'

गीत

पुकार

संजीव 'सलिल'
*
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...

जहाँ रहा तू वहाँ सफल था, सुन मैं गर्वित होती थी.
सबसे मिलकर मुस्काती थी, हो एकाकी रोती थी..
आज नहीं तो कल आएगा कैयां तुझे सुलाऊँगी-
मौन-शांत रह मैं मन की दुनिया में सपने बोती थी.

कान्हा सम तू गया किन्तु मेरी यादों में यहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
*
दुनिया कहती बड़ा हुआ तू, नन्हा ही लगता मुझको .
नटखट बाल किशन में मैंने पाया है हरदम तुझको..
दुनिया कहती अचल मुझे तू चंचल-चपल सुहाता है-
आँचल-लुकते, दूर भागते, आते दिखता तू मुझको.

आ भी जा ओ! छैल-छबीले, ना होकर भी यहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
*
भारत मैया-हिन्दी मैया, दोनों रस्ता हेर रहीं.
अब पुकार सुन पाया है तू, कब से तुझको टेर रहीं.
कभी नहीं से देर भली है, बना रहे आना-जाना
सारी धरती तेरी माँ है, ममता-माया घेर रहीं?

मेरे दिल में सदा रहा तू, निकट-दूर तू जहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही मैं, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
*

गीत: है हवन-प्राण का......... संजीव 'सलिल'

गीत:

है हवन-प्राण का.........

संजीव 'सलिल'
*


*
है हवन मन-प्राण का, तज दूरियाँ, वह एक है .
सनातन सम्बन्ध जन्मों का, सुपावन नेक है.....
*
दीप-बाती के मिलन से, जगत में मनती दिवाली.
अंशु-किरणें आ मिटातीं, अमावस की निशा काली..
पूर्णिमा सोनल परी सी, इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे.
आस का उद्यान पुष्पा, ॐ अभिमंत्रित सवेरे..
कामना रथ, भावना है अश्व, रास विवेक है.
है हवन-प्राण का..........
*
सुमन की मनहर सुरभि दे, ज़िंदगी को अर्थ प्यारे.
लक्ष्मण-रेखा गृहस्थी, परिश्रम सौरभ सँवारे..
शांति की सुषमा सुपावन, स्वर्ग ले आती धरा पर.
आशुतोष निहारिका से, नित प्रगट करता दिवाकर..
स्नेह तुहिना सा विमल, आशा अमर प्रत्येक है..
है हवन-प्राण का..........
*
नित्य मन्वंतर लिखेगा, समर्पण-अर्पण की भाषा.
साधना-आराधना से, पूर्ण होती सलिल-आशा..
गमकती पूनम शरद की, चकित नेह मयंक है.
प्रयासों की नर्मदा में, लहर-लहर प्रियंक है..
चपल पथ-पाथेय, अंश्चेतना ही टेक है.
है हवन-प्राण का..........
*
बाँसुरी की रागिनी, अभिषेक सरगम का करेगी.
स्वरों की गंगा सुपावन, भाव का वैभव भरेगी..
प्रकृति में अनुकृति है, नियंता की निधि सुपावन.
विधि प्रणय की अशोका है, ऋतु वसंती-शरद-सावन..
प्रतीक्षा प्रिय से मिलन की, प्रसून पल प्रत्येक है.
है हवन-प्राण का..........
*
श्वास-सर में प्यास लहरें, तृप्ति है राजीव शतदल.
कृष्णमोहन-राधिका शुभ साधिका निशिता अचंचल..
आन है हनुमान की, प्रतिमान निष्ठा के रचेंगे.
वेदना के, प्रार्थना के, अर्चना के स्वर सजेंगे..
गँवाने-पाने में गुंजित भाव का उन्मेष है.
है हवन-प्राण का..........

*************************

-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

गीत : स्वागत है... संजीव 'सलिल'


गीत :

स्वागत है...

संजीव 'सलिल'
*

















*
पीर-दर्द-दुःख-कष्ट हमारे द्वार पधारो स्वागत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
दिव्य विरासत भूल गए हम, दीनबंधु बन जाने की.
रूखी-सूखी जो मिल जाए, साथ बाँटकर खाने की..
मुट्ठी भर तंदुल खाकर, त्रैलोक्य दान कर देते थे.
भार भाई, माँ-बाप हुए, क्यों सोचें गले लगाने की?..

संबंधों के अनुबंधों-प्रतिबंधों तुम पर लानत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
सात जन्म तक साथ निभाते, सप्त-पदी सोपान अमर.
ले तलाक क्यों हार रहे हैं, श्वास-आस निज स्नेह-समर?
मुँह बोले रिश्तों की महिमा 'सलिल' हो रही अनजानी-
मनमानी कलियों सँग करते, माली-काँटे, फूल-भ्रमर.
सत्य-शांति, सौन्दर्य-शील की, आयी सचमुच शामत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*

वसुधा सकल कुटुंब हमारा, विश्व नीड़वत माना था.
सबके सुख, कल्याण, सुरक्षा में निज सुख अनुमाना था..
सत-शिव-सुन्दर रूप स्वयं का, आज हो रहा अनजाना-
आत्म-दीप बिन त्याग-तेल, तम निश्चय हम पर छाना था.

चेत न पाया व्हेतन मन, दर पर विनाश ही आगत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
पंचतत्व के देवों को हम दानव बनकर मार रहे.
प्रकृति मातु को भोग्या कहकर, अपनी लाज उघार रहे.
धैर्य टूटता काल-चक्र का, असगुन और अमंगल नित-
पर्यावरण प्रदूषण की हर चेतावनी बिसार रहे.

दोष किसी को दें, विनाश में अपने स्वयं 'सलिल' रत हैं.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......

**************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम