फैलाकर सुगंध
मुस्काती पखुडियाँ,
बरस रहीं या
खोज रहीं हैं
अलगनियां?...
वाचक हैं
ये सद्भावों की,
पढ़कर कथा
अभावों की भी,
लोकतंत्र में
नहीं हो सकीं
हैं ये वंचक
नेताओं सी।
आशाओं की
अभिभावक
नन्ही-मुनियाँ...
मोहक क्षणजीवी
सपने सी,
रूप बदलती हैं
अपने सी।
छोड़ नीद
खो गईं अकेली,
संकट में
मोहक सपने सी।
निर्मम-निर्मोही
श्रावक हैं
या बनिया?...
हर अंजुरी को
महका देंगी,
गुल-गुलशन को
बहका देंगी,
लुक-छिपकर,
काना-फूसी कर,
पर घर में
ताके-झाँकेगी।
सलिल धार सम
देख रहीं हैं
जग-दुनिया...
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बहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना, लाजवाब। बधाई
जवाब देंहटाएंbahut sunder umda rachna.
जवाब देंहटाएंकोमल भाव की प्यारी सी रचना प्यारी लगी सलिल जी।
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