सोमवार, 17 अगस्त 2015

muktak geet

मुक्तक गीत 
संजीव
*
पीटो ढोल 
बजाओ मँजीरा 
*
भाग गया परदेशी शासन
गूँज रहे निज देशी भाषण 
वीर शहीद  स्वर्ग से हेरें 
मँहगा होता जाता राशन 

रँगे सियार शीर्ष पर बैठे 
मालिक बेबस नौकर ऐंठे 
कद बौने, लंबी परछाई 
सूरज लज्जित, जुगनू ऐंठे 

सेठों की बन आयी, भाई
मतदाता की शामत आई 
प्रतिनिधि हैं कुबेर, मतदाता 
हुआ सुदामा, प्रीत न भायी 

मन ने चाही मन की बातें 
मन आहत पा पल-पल घातें     
तब-अब चुप्पी-बहस निरर्थक
तब भी, अब भी काली रातें 

ढोंग कर रहे 
संत फकीरा 
पीटो ढोल 
बजाओ मँजीरा 
*
जनसेवा का व्रत लेते जो 
धन-सुविधा पा क्षय होते वो  
जनमत की करते अवहेला 
जनहित बेच-खरीद गये सो  

जनहित खातिर नित्य ग्रहण बन 
जन संसद  को चुभे दहन सम  
बन दलाल दल करते दलदल  
फैलाते केवल तम-मातम 

सरहद पर उग आये कंटक 
हर दल को पर दल है संकट  
नाग, साँप, बिच्छू दल आये 
किसको चुनें-तजें, है झंझट  

क्यों कोई उम्मीदवार हो? 
जन पर क्यों बंदिश-प्रहार हो?
हर जन जिसको चाहे चुन ले 
इतना ही अब तो सुधार हो   

मत मतदाता 
बने जमूरा? 
पीटो ढोल 
बजाओ मँजीरा 
*
चयनित प्रतिनिधि चुन लें मंत्री  
शासक नहीं, देश के संत्री 
नहीं विपक्षी, नहीं विरोधी 
हटें दूर पाखंडी तंत्री  

अधिकारी सेवक मनमानी 
करें न, हों विषयों के ज्ञानी 
पुलिस न नेता, जन-हित रक्षक  
हो, तब ऊगे भोर सुहानी 

पारदर्शितामय पंचायत 
निर्माणों की रचकर आयत 
कंकर से शंकर गढ़ पाये 
सब समान की बिछा बिछायत 

उच्छृंखलता तनिक नहीं हो 
चित्र गुप्त अपना उज्जवल हो 
गौरवमय कल कभी रहा जो 
उससे ज्यादा उज्जवल कल हो 

पूरा हो  
हर स्वप्न अधूरा  
पीटो ढोल 
बजाओ मँजीरा 
*