रविवार, 1 जनवरी 2023

संजीव १ जनवरी

 गीत

उजास दे
*
नवल वर्ष के
प्रथम सूर्य की
प्रथम रश्मि
पल पल उजास दे।

गूँजे गौरैया का कलरव
सलिल-धार की घटे न कलकल
पवन सुनाए सन सन सन सन
हो न किसी कोने में किलकिल
नियति अधर को
मधुर हास दे।

सोते-जगते देखें सपने
मानें-तोड़ें जग के नपने
कोशिश कर कर थक जाएँ तो
लगें राम की माला जपने
पीर दर्द सह
झट हुलास दे।

लड़-मिलकर सँग रहना आए
कोई छिटककर दूर न जाए
गले मिल सकें, हाथ मिलाएँ
नयन नयन को नयन बसाए
अधर अधर को
नवल हास दे। 
१-२-२०२३,१५•२३
•••
सॉनेट
बेधड़क

बेधड़क बात अपनी कही
कोई माने न माने सचाई
हो न जाती सुता सम पराई
संग श्वासा सी पल पल रही

पीर किसने किसी की गही?
मौज मस्ती में जग साथ था
कष्ट में झट तजा हाथ था
वेदना सब अकेले तही

रेणु सब अश्रुओं से बही
नेह की नर्मदा ना मिली
शेष है हर शिला अनधुली

माँग पूरी करी ना भरी
तुम उड़ाते भले हो हँसी
दिल में गहरे सचाई धँसी

संजीव
१-१-२०२३,४•३८
जबलपुर
●●●
सॉनेट
पग-धूल

ईश्वर! तारो दे पग-धूल
अंश तुम्हारा आया दर पर
जागो जागो जागो हरि हर
क्षमा करो मेरी सब भूल

पग मग पर चल पाते शूल
सुनकर भी अनसुना रुदन-स्वर
क्यों करते हो करुणा सागर
देख न देखी आँसू-झूल

क्या कर सकता भेंट अकिंचन?
अँजुरी में कुछ श्रद्धा-फूल
स्वीकारो यह ब्याज समूल

तरुण पथिक, हो मधुर कृपालु
आस टूटती दिखे न कूल
आकुल किंकर दो पग-धूल

संजीव
१-१-२०२३, ४•२०
जबलपुर
●●●
गीत
बिदा दो

बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
भूमिका जो मिली थी मैंने निभाई
करी तुमने अदेखी, नजरें चुराई
गिर रही है यवनिका अंतिम नमन लो
नहीं अपनी, श्वास भी होती पराई
छाँव थोड़ी धूप हमने साथ झेली
हर्ष गम से रह न पाया दूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
जब मिले थे किए थे संकल्प
लक्ष्य पाएँ तज सभी विकल्प
चल गिरे उठ बढ़े मिल साथ
साध्य ऊँचा भले साधन स्वल्प
धूल से ले फूल का नव नूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
तीन सौं पैंसठ दिवस थे साथ
हाथ में ले हाथ, उन्नत माथ
प्रयासों ने हुलासों के गीत
गाए, शासन दास जनगण नाथ
लोक से हो तंत्र अब मत दूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
जा रहा बाईस का यह साल
आ रहा तेईस करे कमाल
जमीं पर पग जमा छू आकाश
हिंद-हिंदी करे खूब धमाल
बजाओ मिल नव प्रगति का तूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
अभियान आगे बढ़ाएँ हम-आप
छुएँ मंज़िल नित्य, हर पथ माप
सत्य-शिव-सुंदर बने पाथेय
नव सृजन का हो निरंतर जाप
शत्रु-बाधा को करो झट चूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर

संजीव
३१-१२-२०२२
१६•३६, जबलपुर
●●●
कविता
*
महाकाल ने महाग्रंथ का पृष्ठ पूर्ण कर,
नए पृष्ठ पर लिखना फिर आरंभ किया है। 
रामभक्त ने राम-चरित की चर्चा करके 
आत्मसात सत-शिव करना प्रारंभ किया है। 
चरण रामकिंकर के गहकर 
बहे भक्ति मंदाकिनी कलकल। 
हो आराम हराम हमें अब 
छू ले लक्ष्य, नया झट मधुकर। 
कृष्ण-कांत की वेणु मधुर सुन
 नर सुरेश हों, सुर भू उतरें। 
इला वरद, संजीव जीव हो। 
शंभुनाथ योगेंद्र जगद्गुरु 
चंद्रभूषण अमरेंद्र सत्य निधि। 
अंजुरी मुकुल सरोज लिए हो 
करे नमन कैलाश शिखर को। 
सरला तरला, अमला विमला 
नेह नर्मदा-पवन प्रवाहित। 
अग्नि अनिल वसुधा सलिलांबर 
राम नाम की छाया पाएँ। 
नए साल में, नए हाल में, 
बढ़े राष्ट्र-अस्मिता विश्व में। 
रानी हो सब जग की हिंदी 
हिंद रश्मि की विभा निरुपमा। 
श्वास बसंती हो संगीता, 
आकांक्षा हर दिव्य पुनीता। 
निशि आलोक अरुण हँस झूमे 
श्रीधर दे संतोष-मंजरी। 
श्यामल शोभित हरि सहाय हो, 
जय प्रकाश की हो जीवन में। 
मानवता की जय जय गाएँ। 
राम नाम हर पल गुंजाएँ।। 
३१-१२-२०२२ 
●●●
अंक माहात्म्य (०-९)
*
शून्य जन्म दे सृष्टि को, सकल सृष्टि है शून्य।
जुड़-घट अंतर शून्य हो, गुणा-भाग फल शून्य।।
*
एक ईश रवि शशि गगन, भू मैं तू सिर एक।
गुणा-भाग धड़-नासिका, है अनेक में एक।।
*
दो जड़-चेतन नार-नर, कृष्ण-शुक्ल दो पक्ष।
आँख कान कर पैर दो, अधर-गाल समकक्ष।।
*
तीन देव व्रत राम त्रय, लोक काल ऋण तीन।
अग्नि दोष-गुण ताप ऋतु, धारा मामा तीन।।
*
चार धाम युग वेद रिपु, पीठ दिशाएँ चार।
वर्ण आयु पुरुषार्थ चौ, चौका चौक अचार।।
*
पाँच देव नद अंग तिथि, तत्व अमिय शर पाँच।
शील सुगंधक इन्द्रियाँ, कन्या नाड़ी साँच।।
*
छह दर्शन वेदांग ऋतु, शास्त्र पर्व रस कर्म।
षडाननी षड राग है, षड अरि-यंत्र न धर्म।।
*
सात चक्र ऋषि द्वीप स्वर, सागर पर्वत रंग।
लोक धातु उपधातु दिन, अश्व अग्नि शुभ अंग।।
*
अष्ट लक्ष्मी सिद्धि वसु, योग कंठ के दोष।
योग-राग के अंग अठ, आत्मोन्नति जयघोष।
*
नौ दुर्गा ग्रह भक्ति निधि, हवन कुंड नौ तंत्र।
साड़ी मोहे नौगजी, हार नौलखा मंत्र।।
***
सॉनेट
जाड़ा आया है
*
ठिठुर रहे हैं मूल्य पुराने, जाड़ा आया है।
हाथ तापने आदर्शों को सुलगाया हमने।
स्वार्थ साधने सुविधाओं से फुसलाया हमने।।
जनमत क्रयकर अपना जयकारा लगवाया है।।
अंधभक्ति की ओढ़ रजाई, करते खाट खड़ी।
सरहद पर संकट के बादल, संसद एक नहीं।
जंगल पर्वत नदी मिटाते, आफत है तगड़ी।।
उलटी-सीधी चालें चलते, नीयत नेक नहीं।।
नफरत के सौदागर निश-दिन, जन को बाँट रहे।
मुर्दे गड़े उखाड़ रहे, कर ऐक्य भावना नष्ट।
मिलकर चोर सिपाही को ही, नाहक डाँट रहे।।
सत्ता पाकर ऐंठ रहे, जनगण को बेहद कष्ट।।
गलत आँकड़े, झूठे वादे, दावे मनमाने।
महारोग में रैली-भाषण, करते दीवाने।।
१-१-२०२२
***
नये साल की दोहा सलिला:
*
उगते सूरज को सभी, करते सदा प्रणाम.
जाते को सब भूलते, जैसे सच बेदाम..
*
हम न काल के दास हैं, महाकाल के भक्त.
कभी समय पर क्यों चलें?, पानी अपना रक्त..
*
बिन नागा सूरज उगे, सुबह- ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
*
अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत.
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
*
संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
*
ढाई आखर पढ़ सुमिर, तज अद्वैत वर द्वैत.
मैं-तुम मिट, हम ही बचे, जब-जब खेले बैत..
*
जीते बाजी हारकर, कैसा हुआ कमाल.
'सलिल'-साधना सफल हो, सबकी अबकी साल..
*
भुला उसे जो है नहीं, जो है उसकी याद.
जीते की जय बोलकर, हो जा रे नाबाद..
*
नये साल खुशहाल रह, बिना प्याज-पेट्रोल..
मुट्ठी में समान ला, रुपये पसेरी तौल..
*
जो था भ्रष्टाचार वह, अब है शिष्टाचार.
नये साल के मूल्य नव, कर दें भव से पार..
*
भाई-भतीजावाद या, चचा-भतीजावाद.
राजनीति ने ही करी, दोनों की ईजाद..
*
प्याज कटे औ' आँख में, आँसू आयें सहर्ष.
प्रभु ऐसा भी दिन दिखा, 'सलिल' सुखद हो वर्ष..
*
जनसँख्या मंहगाई औ', भाव लगाये होड़.
कब कैसे आगे बढ़े, कौन शेष को छोड़..
*
ओलम्पिक में हो अगर, लेन-देन का खेल.
जीतें सारे पदक हम, सबको लगा नकेल..
*
पंडित-मुल्ला छोड़ते, मंदिर-मस्जिद-माँग.
कलमाडी बनवाएगा, मुर्गा देता बांग..
*
आम आदमी का कभी, हो किंचित उत्कर्ष.
तभी सार्थक हो सके, पिछला-अगला वर्ष..
*
गये साल पर साल पर, हाल रहे बेहाल.
कैसे जश्न मनायेगी. कुटिया कौन मजाल??
*
धनी अधिक धन पा रहा, निर्धन दिन-दिन दीन.
यह अपने में लीन है, वह अपने में लीन..
**************
१-१-२०२१
***
।। ॐ ।।
गीत
चित्र गुप्त है नए काल का हे माधव!
गुप्त चित्र है कर्म जाल का हे माधव!
स्नेह साधना हम कर पाएँ श्री राधे!
जीवन की जय जय गुंजायें श्री राधे!
मानव चाहे बनना भाग्य विधाता पर
स्वार्थ साधकर कहे बना जगत्राता पर
सुख-सपनों की खेती हित दुख बोता है
लेख भाल का कब पढ़ पाया हे माधव!
नेह नर्मदा निर्मल कर दो श्री राधे!
रासलीन तन्मय हों वर दो श्री राधे!
रस-लय-भाव तार दे भव से सदय रहो
शारद-रमा-उमा सुत हम हों श्री राधे!
खुद ही वादों को जुमला बता देता
सत्ता हित जिस-तिस को अपने सँग लेता
स्वार्थ साधकर कैद करे संबंधों को
न्यायोचित ठहरा छल करता हे माधव!
बंधन में निर्बंध रहें हम श्री राधे!
स्वार्थरहित संबंध वरें हम श्री राधे!
आए हैं तो जाने की तैयारी कर
खाली हाथों तारकर तरें श्री राधे!
बिसरा देता फल बिन कर्म न होता है
व्यर्थ प्रसाद चढ़ा; संशय मन बोता है
बोये शूल न फूल कभी भी उग सकते
जीने हित पल पल मरता मनु हे माधव!
निजहित तज हम सबहित साधें श्री राधे!
पर्यावरण शुद्धि आराधें श्री राधे!
प्रकृति पुत्र हों, संचय-भोग न ध्येय बने
सौ को दें फिर लें कुछ काँधे श्री राधे!
माधव तन में राधा मन हो श्री राधे!
राधा तन में माधव मन हो हे माधव!
बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में हे माधव!
हो सहिष्णु सद्भाव पथ वरें श्री राधे!
१-१-२०२०
***
बाल गीत :
ज़िंदगी के मानी
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है....
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
नव वर्ष पर नवगीत:
नया पृष्ठ
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा...
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ?
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
***
नये साल का गीत
कुछ ऐसा हो साल नया
*
कुछ ऐसा हो साल नया,
जैसा अब तक नहीं हुआ.
अमराई में मैना संग
झूमे-गाये फाग सुआ...
*
बम्बुलिया की छेड़े तान.
रात-रातभर जाग किसान.
कोई खेत न उजड़ा हो-
सूना मिले न कोई मचान.
प्यासा खुसरो रहे नहीं
गैल-गैल में मिले कुआ...
*
पनघट पर पैंजनी बजे,
बीर दिखे, भौजाई लजे.
चौपालों पर झाँझ बजा-
दास कबीरा राम भजे.
तजें सियासत राम-रहीम
देख न देखें कोई खुआ...
*
स्वर्ग करे भू का गुणगान.
मनुज देव से अधिक महान.
रसनिधि पा रसलीन 'सलिल'
हो अपना यह हिंदुस्तान.
हर दिल हो रसखान रहे
हरेक हाथ में मालपुआ...
१-१-२०११
***

सोमवार, 6 दिसंबर 2021

छंद झूलना, झूलना छंद, नवगीत, मुक्तक, दोहा, लघुकथा, गीत

छंद झूलना
(विधान : ६ x ५ + २ + ५, ३७ मात्रिक, पदांत
*
नर्मदा वर्मदा शर्मदा धर्मदा मातु दो नीर हर लो पिपासा।
प्राण-मन तृप्त हो, भू न अभिशप्त हो, दो उजाला न तम हो जरा सा।।
भारती तारती आरती हम करें हो सदय कर जगत यह हरा सा।
वायु निर्मल रहे कर सुवासित बहे भाव नव संचरे रस नया सा।।
६-१२-२०२१
***
नवगीत
*
जुगनू हुए इकट्ठे
सूरज को कहते हैं बौना।
*
शिल्प-माफिया छाती ठोंके,
मुखपोथी कुरुक्षेत्र।
अँधरे पुजते दिव्य चक्षु बन,
गड़े शरम से नेत्र।
खाल शेर की ओढ़ दहाड़े
'चेंपो' गर्दभ-छौना।
जुगनू हुए इकट्ठे
सूरज को कहते हैं बौना।
*
भाव अभावों के ऊँचे हैं,
हुई नंगई फैशन।
पाचक चूर्ण-गोलियाँ गटकें,
कहें न पाया राशन।
'लिव इन' बरसों जिया,
मौज कर कहें 'छला बिन गौना।
*
स्यापा नकली, ताल ठोंकते
मठाधीश षडयंत्री।
शब्द-साधना मान रुदाली
रस भूसे खल तंत्री।
मुँह काला कर गर्वित,
खुद ही कहते लगा डिठौना।
५-१२-२०१८
***
मुक्तक
.
नेह से कोई न आला
मन तरा यदि नेह पाला
नेह दीपक दिवाली का
नेह है पावन शिवाला
.
सुनीता पुनीता रहे जिंदगी
सुगीता कहे कर्म ही बंदगी
कर ईश-अर्पण न परिणाम सोच
महकती हों श्वासें सदा संदली
.
बंद कौन है काया की कारा में?
बंदा है वह बँधा कर्म-धारा में
काया बसी आत्मा ही कायस्थ
करे बंदगी, सार यही सारा में
.
गौ भाषा को दुह करे,
अर्थ-दुग्ध का पान.
श्रावण या रमजान हो,
दोहा रस की खान.
६-१२-२०१७
***
दोहा दुनिया
*
कुसुम-कली सम महककर, जग महका दो मीत.
'सलिल' सुवासित सुरूपा, मन हारे मन जीत..
*
जो चाहें वह बेच दें, जब चाहे अमिताभ
अच्छा है जो बच गए, हे बच्चन अजिताभ
*
हे माँ! वर दे टेर सुन, हुआ करिश्मा आज
हेमा से हेमा कहे, डगमग तेरा ताज
*
हैं तो वे धर्मेन्द्र पर, बदल लिया निज धर्म
है पत्थर तन में छिपा, मक्खन जैसा मर्म
*
नूतन है हर तनूजा, रखे करीना याद
जहाँ जन्म ले बिपाशा, हो न वहाँ आबाद
*
नयनों में काजोल भर, हुई शबाना मौन
शबनम की बूँदें झरीं, कहो पी गया कौन?
*
जय ललिता की बोलिए, शंकर रहें प्रसन्न
कहें जय किशन अगर तो, हो संगीत प्रसन्न
**
अमिताभ = बहुत आभायुक्त, अजिताभ = जिसकी आभा अजेय हो, करिश्मा =चमत्कार, हेमा = धरती, सोना, धर्मेन्द्र = परम धार्मिक, नूतन = नयी, तनूजा = पुत्री, करीना = तरीका,बिपाशा = नदी, काजोल = काजल, शबाना = रात, शबनम = ओस, जय ललिता = पार्वती की जय,जय किशन = कृष्ण की जय।
६-१२-२०१६
***
लघुकथा-
ओवर टाइम
*
अभी तो फैक्ट्री में काम का समय है, फिर मैं पत्ते खेलने कैसे आ सकता हूँ? ५ बजे के बाद खेल लेंगे।
तुम भी यार! रहे लल्लू के लल्लू। शाम को देर से घर जाकर कौन अपनी खाट खड़ी करवाएगा? चल अभी खेलते हैं काम बाकी रहेगा तभी तो प्रबंधन समय पर कराने के लिये देगा ओवर टाइम।
***
सहिष्णुता
*
कहा-सुनी के बाद वह चली गयी रसोई में और वह घर के बाहर, चलते-चलते थक गया तो एक पेड़ के नीचे बैठ गया. कब झपकी लगी पता ही न चला, आँख खुली तो थकान दूर हो गयी थी, कानों में कोयल के कूकने की मधुर ध्वनि पड़ी तो मन प्रसन्न हुआ. तभी ध्यान आया उसका जिसे छोड़ आया था घर में, पछतावा हुआ कि क्यों नाहक उलझ पड़ा?
कुछ सोच तेजी से चल पड़ा घर की ओर, वह डबडबाई आँखों से उसी को चिंता में परेशान थी, जैसे ही उसे अपने सामने देखा, राहत की साँस ली. चार आँखें मिलीं तो आँखें चार होने में देर न लगी.
दोनों ने एक-दुसरे का हाथ थामा और पहुँच गये वहीं जहाँ अनेकता में एकता का सन्देश दे नहीं, जी रहे थे वे सब जिन्हें अल्पबुद्धि जीव कहते हैं वे सब जो पारस्परिक विविधता के प्रति नहीं रख पा रहे अपने मन में सहिष्णुता।
६-१२-२०१५
***
गीत :...
सच है
संजीव 'सलिल'
*
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
ढाई आखर की पोथी से हमने संग-संग पाठ पढ़े हैं.
शंकाओं के चक्रव्यूह भेदे, विश्वासी किले गढ़े है..
मिलन-क्षणों में मन-मंदिर में एक-दूसरे को पाया है.
मुक्त भाव से निजता तजकर, प्रेम-पन्थ को अपनाया है..
ज्यों की त्यों हो कर्म चदरिया मर्म धर्म का इतना जाना-
दूर किया अंतर से अंतर, भुला पावना-देना सच है..
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.
मन पाकर मन हुआ पूर्ण, खो मन को मन में रही अचलता.
जन्म-जन्म का संग न बंधन, अवगुंठन होता आत्मा का.
प्राण-वर्तिकाओं का मिलना ही दर्शन है उस परमात्मा का..
अर्पण और समर्पण का पल द्वैत मिटा अद्वैत वर कहे-
काया-माया छाया लगती मृग-मरीचिका लेकिन सच है
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
६-१२-२०१३
***
मुक्तिका:
है यही वाजिब...
संजीव 'सलिल'
*
है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।
रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?
घर में भी बेघर रहोगे, चैन पाओगे नहीं,
आज यह, कल और कोई बाँह में गर चाहिए।।
चाक हो दिल या गरेबां, मौन ही रहना 'सलिल'
मेहरबां से हो गुजारिश- 'और कुछ फरमाइए'।।
आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।
***
***
लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :
संजीव 'सलिल'
*
पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित
पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
*
बुन्देली पारंपरिक तर्ज:
मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
*
अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
६-१२-१२
*

सॉनेट

सॉनेट 
वंदना
*
वंदन देव गजानन शत-शत।
करूँ प्रणाम शारदा माता।
कर्मविधाता चित्र गुप्त प्रभु।।
नमन जगत्जननी-जगत्राता।।

अंतरिक्ष नवगृह हिंदी माँ।
दसों दिशाएँ सदा सदय हों।
छंदों से आनंदित आत्मा।।
शब्द शक्ति पा भाव अजय हों।।

श्वास-श्वास रस बरसाओ  प्रभु!
अलंकार हो आस हास में।
सत-शिव-सुंदर कह पाऊँ विभु।।
रखूँ भरोसा सत्प्रयास में।।

नाद ताल लिपि अक्षर वाणी।
निर्मल मति दे माँ कल्याणी।।
६-१२-२०२१

बुधवार, 17 जनवरी 2018

सोमवार, 15 जनवरी 2018

दोहा दुनिया

शिव को पा सकते नहीं,
शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे,
मिलें अगर अनुराग।।
*
शिव को भज निष्काम हो,
शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे,
शिव हैं आप अनाम।।
*‍
वृषभ-देव शिव दिगंबर,
ढंकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें,
पूर्ण करें हर काज।।
*
शिव से छल करना नहीं,
बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से,
बजा श्वास संतूर।।
*
शिव त्रिनेत्र से देखते,
तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते,
करते कभी न भेद।।
***
१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली

सोमवार, 17 अगस्त 2015

muktak geet

मुक्तक गीत 
संजीव
*
पीटो ढोल 
बजाओ मँजीरा 
*
भाग गया परदेशी शासन
गूँज रहे निज देशी भाषण 
वीर शहीद  स्वर्ग से हेरें 
मँहगा होता जाता राशन 

रँगे सियार शीर्ष पर बैठे 
मालिक बेबस नौकर ऐंठे 
कद बौने, लंबी परछाई 
सूरज लज्जित, जुगनू ऐंठे 

सेठों की बन आयी, भाई
मतदाता की शामत आई 
प्रतिनिधि हैं कुबेर, मतदाता 
हुआ सुदामा, प्रीत न भायी 

मन ने चाही मन की बातें 
मन आहत पा पल-पल घातें     
तब-अब चुप्पी-बहस निरर्थक
तब भी, अब भी काली रातें 

ढोंग कर रहे 
संत फकीरा 
पीटो ढोल 
बजाओ मँजीरा 
*
जनसेवा का व्रत लेते जो 
धन-सुविधा पा क्षय होते वो  
जनमत की करते अवहेला 
जनहित बेच-खरीद गये सो  

जनहित खातिर नित्य ग्रहण बन 
जन संसद  को चुभे दहन सम  
बन दलाल दल करते दलदल  
फैलाते केवल तम-मातम 

सरहद पर उग आये कंटक 
हर दल को पर दल है संकट  
नाग, साँप, बिच्छू दल आये 
किसको चुनें-तजें, है झंझट  

क्यों कोई उम्मीदवार हो? 
जन पर क्यों बंदिश-प्रहार हो?
हर जन जिसको चाहे चुन ले 
इतना ही अब तो सुधार हो   

मत मतदाता 
बने जमूरा? 
पीटो ढोल 
बजाओ मँजीरा 
*
चयनित प्रतिनिधि चुन लें मंत्री  
शासक नहीं, देश के संत्री 
नहीं विपक्षी, नहीं विरोधी 
हटें दूर पाखंडी तंत्री  

अधिकारी सेवक मनमानी 
करें न, हों विषयों के ज्ञानी 
पुलिस न नेता, जन-हित रक्षक  
हो, तब ऊगे भोर सुहानी 

पारदर्शितामय पंचायत 
निर्माणों की रचकर आयत 
कंकर से शंकर गढ़ पाये 
सब समान की बिछा बिछायत 

उच्छृंखलता तनिक नहीं हो 
चित्र गुप्त अपना उज्जवल हो 
गौरवमय कल कभी रहा जो 
उससे ज्यादा उज्जवल कल हो 

पूरा हो  
हर स्वप्न अधूरा  
पीटो ढोल 
बजाओ मँजीरा 
*

मंगलवार, 5 मई 2015

navgeet: jaisa boya -sanjiv

नवगीत:
जैसा बोया 
संजीव
*
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुमने मेरा
मन तोड़ा था
सोता हुआ
मुझे छोड़ा था
जगी चेतना
अगर तुम्हारी
मुझे नहीं
क्यों झिंझोड़ा था?
सुत रोया
क्या कभी चुपाया?
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुम सोये
मैं रही जागती
क्या होता
यदि कभी भागती?
क्या तर पाती?
या मर जाती??
अच्छा लगता
यदि तड़पाती??
केवल खुद का
उठना भाया??
जैसा बोया
वैसा पाया
.
सात वचन
पाये झूठे थे.
मुझे तोड़
तुम भी टूटे थे. 
अति बेमानी
जान सके जब
कहो नहीं क्यों
तुम लौटे थे??
खीर-सुजाता ने
भरमाया??
जैसा बोया
वैसा पाया
.
घर त्यागा
भिक्षा की खातिर?
भटके थे
शिक्षा की खातिर??
शिक्षा घर में भी
मिलती है-
नहीं बताते हैं  
सच शातिर
मूरत गढ़
जग ने झुठलाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
मन मंदिर में
तुम्हीं विराजे
मूरत बना
बजाते बाजे
जो, वे ही
प्रतिमा को तोड़ें
उनका ढोंग
उन्हीं को साजे
मैंने दोनों में
दुःख पाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुम, शोभा की
वस्तु बने हो
कहो नहीं क्या
कर्म सने हो?
चित्र गुप्त
निर्मल रख पाये??
या विराग के
राग घने हो??
पूज रहा जग
मगर भुलाया 
जैसा बोया
वैसा पाया
.

navgeet: dhaee aakahr -sanjiv,

नवगीत:
ढाई आखर
संजीव 
*
जिन्स बना 
बिक रहा आजकल 
ढाई आखर।। 
.
दाँत दूध के टूट न पाये
पर वयस्क हैं।  
नहीं सुंदरी नर्स इसलिए
अनमयस्क हैं। 
चूस रहे अंगूठा लेकिन
आँख मारते-
बाल भारती पढ़ न सकें 
डेटिंग परस्त हैं। 
हर उद्यान
काम-क्रीड़ा हित
इनको बाखर। 
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर।। 
.
मकरध्वज घुट्टी में शायद
गयी पिलायी। 
वात्स्यायन की खोज
गर्भ में गयी सुनायी। 
मान देह को माटी; माटी से
मिलते हैं-
कीचड़ किया, न शतदल कलिका
गयी खिलायी। 
मन अनजाना
केवल तन; इनको 
जलसाघर। 
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर। 
.
रिश्ते-नाते वस्त्र सरीखे 
रोज बदलते।  
कहें देह संपत्ति 
पंक में कूद फिसलते।  
माता-पिता बोझ अनचाहा 
छूटे पीछा- 
मिले विरासत में दौलत;  
कर्तव्य न रुचते।  
खोज रहे हैं
साथी; साथी 
बदल-बदलकर। 
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर। 
.


muktika (hindi gazal): baat kar -sanjiv

मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) 

बात कर

बात कर ghazal
Photo by kevin dooley 
निर्जीव को संजीव बनाने की बात कर
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर
‘भू माफ़िये’! भूचाल कहे, ‘मत ज़मीं दबा
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर’
‘आँखें मिलायें’ मौत से कहती है ज़िंदगी
आ मारने के बाद जलाने की बात कर
तूने गिराये हैं मकां बाकी हैं हौंसले
कांटों के बीच फूल खिलाने की बात कर
हे नाथ पशुपति! रूठ मत तू नीलकंठ है
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर
पत्थर से कलेजे में रहे स्नेह ‘सलिल’ भी
आ वेदना से गंगा बहाने की बात कर
नेपाल पालता रहा विश्वास हमेशा
चल इस धरा पे स्वर्ग बसाने की बात कर

muktika (hindi gazal) - sanjiv,

मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) :

चूक जाओ न

चूक जाओ न ghazal
Photo by Vincepal 
चूक जाओ न, जीत जाने से
कुछ न पाओगे दिल दुखाने से
काश! ख़ामोश हो गये होते
रार बढ़ती रही बढ़ाने से
बावफ़ा थे, न बेवफ़ा होते
बात बनती है, मिल बनाने से
घर की घर में रहे तो बेहतर है
कौन छोड़े हँसी उड़ाने से?
ये सियासत है, गैर से बचना
आज़माओ न आज़माने से
जिसने तुमको चुना नहीं बेबस
आयेगा फिर न वो बुलाने से
घाव कैसा हो, भर ही जाता है
दूरियाँ मिटती हैं भुलाने से

muktika (hindi gazal) - sanjiv

मुक्तिका:

बोलना था जब

बोलना था जब, तभी लब कुछ नहीं बोले
बोलना था जब नहीं, बेबात भी बोले
काग जैसे बोलते हरदम रहे नेता
ग़म यही कोयल सरीखे क्यों नहीं बोले?
परदेस की ध्वजा रहे फ़हरा अगर नादां
निज देश का झंडा उठा हम मिल नहीं बोले
रिश्ते अबोले रिसते रहे बूँद-बूँद कर
प्रवचन सुने चुप सत्य, सुनकर झूठ क्या बोले?
बोलते बाहर रहे घर की सभी बातें
घर में रहे अपनों से अलग कुछ नहीं बोले
सरहद पे कटे शीश या छाती हुई छलनी
माँ की बचाई लाज, लाल चुप नहीं बोले

dwipadika: sanjiv

द्विपदिका:

अपनी बात

अपनी बात geet
Photo by Taymaz Valley 
पल दो पल का दर्द यहाँ है पल दो पल की खुशियाँ हैं
आभासी जीवन जीते हम नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी साथ रास कब आता है
नोंक-झोंक, खींचा-तानी ही मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें न रोएँ हमको तो मुस्काना हैलम्बी डगर
*

navgeet: - sanjiv

नवगीत:

बाँस बना ताज़ा अखबार

बाँस बना ताज़ा अखबार geet
Photo by seanmcgrath 
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार,
फाँसी लगा किसान ने
ख़बर बनाई खूब,
पत्रकार नेता गए
चर्चाओं में डूब,
जानेवाला गया है
उनको तनिक न रंज
क्षुद्र स्वार्थ हित कर रहे
जो औरों पर तंज़,
ले किसान से सेठ को
दे ज़मीन सरकार
क्यों नादिर सा कर रही
जन पर अत्याचार?
बिना शुबह बाँस तना
जन का हथियार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार,
भूमि गँवाकर डूब में
गाँव हुआ असहाय,
चिंता तनिक न शहर को
टंसुए श्रमिक बहाय,
वनवासी से वन छिना
विवश उठे हथियार
आतंकी कह भूनतीं
बंदूकें हर बार,
‘ससुरों की ठठरी बँधे’
कोसे बाँस उदास
पछुआ चुप पछता रही
कोयल चुप है खाँस
करता पर कहता नहीं
बाँस कभी उपकार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार|
*

navgeet: apanon par -sanjiv,

नवगीत:

अपनों पर

अपनों पर geet
Photo by tonymitra 
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
साये से भय खाते लोग
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
उसने पाया था बहुमत
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
सत्य, झूठ को बतलाते
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
वह हलाहल रहा पीता
बिना बाज़ी लड़े जीता
हो वैरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
कोई टोक न पाया
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें|
*

rashtreey muktak: -sanjiv

मुक्तक:

हम एक हों

हम एक हों geet
Photo by kannanokannan 
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके
नित प्रात हो हम साथ हों नत माथ हो जगवन्दिते,
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोई भी दुखी|
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:,
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों ज़िन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें|
तज दें सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो,
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों|
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा,
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होकर गा सकें|
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]