शनिवार, 4 अप्रैल 2009

गीत: कोशिश का खुला रहे द्वार.... -आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत

आचार्य संजीव 'सलिल'

संकट में,
हिम्मत मत हार.
कोशिश का
खुला रहे द्वार....

शूल बीन
फूल नित बिखेर.
हो न दीन,
कर नहीं अबेर.
तम को कर
सूरज बन पार....

माटी की
महक नहीं भूल.
सर न चढ़े
पैर दबी धुल.
मारों पर न
करना तू वार...

कल को दे
कल से अब जोड़.
नातों को
पल में मत तोड़.
कलकल कर
बहे 'सलिल'-धार...

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शुक्रवार, 27 मार्च 2009

गीत: दर्द तुम्हारा करुण कथा है.... -आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत

दर्द तुम्हारा करुण कथा है,
पीर हमारी छद्म व्यथा है?
किस मानक को मान रहे हो?-
बैर अकलसे ठान रहे हो?...

सिर्फ़ तुम्हारी चोट चोट है?,
चोट हमारी तुम्हें खोट है।
हम ज्यों की त्यों चादर रखते-
तुम्हें सुहाए नगद नोट है।
जितना पाया- उतने खाली
गाथा व्यर्थ बखान रहे हो...

पाँच साल में शक्ल दिखायी।
लेकिन तुमको शर्म न आयी।
घर भर कर भी कर फैलाये-
जनगण मन को धता बतायी।
चोर, लुटेरे, डाकू, तस्कर-
बन सांसद अपमान रहे हो...

बोलो क्यों दे तुमको हम मत?
सत्य कह सको, है क्या हिम्मत?
राजमार्ग-महलों को तजकर-
चौपालों पर कर नित गम्मत।
यही तुम्हारी जड़ है जिसको-
'सलिल' नहीं पहचान रहे हो...

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मंगलवार, 17 मार्च 2009

गीत: श्वास गीत, आस-प्यास अंतरा -संजीव सलिल

गीत

श्वास गीत, आस-प्यास अंतरा।

सनातन है रास की परम्परा । ।

तन का नही, मन का मेल जिंदगी।

स्नेह-सलिल-स्नान ईश- बन्दगी।

नित सृजन ही सभ्यता औ' संस्कृति।

सृजन हेतु सृष्टि नित स्वयंवरा। ।

आदि-अंतहीन चक्र काल का।

सादि-सांत लेख मनुज-भाल का।

समर्पण घमंड, क्रोध, स्वार्थ का।

भावनाविहीन ज्ञान कोहरा । ।

राग-त्याग नहीं सत्य-साधना।

अनुराग औ' आसक्ति पूत भावना।

पुरातन है प्रकृति-पुरूष का मिलन।

निरावरण गगन, धारा दिगंबरा। ।

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रविवार, 15 मार्च 2009

गीत सोये बहुत देव अब जागो आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत

सोये बहुत देव अब जागो

आचार्य संजीव 'सलिल'

सोये बहुत
देव! अब जागो...

तम ने
निगला है उजास को।
गम ने मारा
है हुलास को।
बाधाएँ छलती
प्रयास को।
कोशिश को
जी भर अनुरागो...

रवि-शशि को
छलती है संध्या।
अधरा धरा
न हो हरि! वन्ध्या।
बहुत झुका
अब झुके न विन्ध्या।
ऋषि अगस्त
दक्षिण मत भागो...

पलता दीपक टेल
त ले अँधेरा ।

हो निशांत
फ़िर नया सवेरा।
टूटे स्वप्न
न मिटे बसेरा।
कथनी-करनी
संग-संग पागो...

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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

वक़्त ने दिल को दिए हैं

घाव कितने?...

हम समझ ही नहीं पाए

कौन क्या है?

और तुमने यह न समझा

मौन क्या है?

रहकर भी रहे क्यों

दूर हरदम?

कौन जाने हैं अजाने

भाव कितने?

वक़्त ने दिल को दिए हैं

घाव कितने?...

चाहकर भी तुम न हमको

चाह पाए।

दाहकर भी हम न तुमको

दाह पाए।

बांह में थी बांह लेकिन

राह भूले-

छिपे तन-मन में रहे

अलगाव कितने?

वक़्त ने दिल को दिए हैं

घाव कितने?...

अ-सुर-बेसुर से नहीं,

किंचित शिकायत।

स-सुर सुर की भुलाई है

क्यों रवायत?

नफासत से जहालत क्यों

जीतती है?

बगावत क्यों सह रही

अभाव इतने?

वक़्त ने दिल को दिए हैं

घाव कितने?...

खड़े हैं विषधर, चुनें तो

क्यों चुनें हम?

नींद गायब तो सपन

कैसे बुनें हम?

बेबसी में शीश निज अपना

धुनें हम-

भाव नभ पर, धरा पर

बेभाव कितने?

वक़्त ने दिल को दिए हैं

घाव कितने?...

सांझ सूरज-चंद्रमा संग

खेलती है।

उषा रुसवाई, न कुछ कह

झेलती है।

हजारों तारे निशा के

दिवाने है-

'सलिल' निर्मल पर पड़े

प्रभाव कितने?

वक़्त ने दिल को दिए हैं

घाव कितने?...

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बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

गीत

कागा आया है

जयकार करो,

जीवन के हर दिन

सौ बार मरो...

राजहंस को

बगुले सिखा रहे

मानसरोवर तज

पोखर उतरो...

सेवा पर

मेवा को वरीयता

नित उपदेशो

मत आचरण करो...

तुलसी त्यागो

कैक्टस अपनाओ

बोनसाई बन

अपनी जड़ कुतरो...

स्वार्थ पूर्ति हित

कहो गधे को बाप

निज थूका चाटो

नेता चतुरों...

कंकर में शंकर

हमने देखा

शंकर को कंकर

कर दो ससुरों...

मात-पिता मांगे

प्रभु से लडके

भूल फ़र्ज़, हक

लड़के लो पुत्रों...

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सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

गीत चलो हम सूरज उगायें

गीत
चलो हम सूरज उगायें
चलो!
हम सूरज उगाएं
सघन तम से क्यों डरें हम?
भीत होकर क्यों मरें हम?
मरुस्थल भी जी उठेंगे-
हरीतिमा मिल हम उगायें...
विमल जल की सुनें कल-कल।
भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
सभी सब के काम आयें...
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
किसी के मन भाएंगे क्या?
सोच यह जीवन जियें हम।
हाथ-हाथों से मिलाएं...
आत्म में विश्वातं देखें।
हर जगह परमात्म लेखें।
छिपा है कंकर में शंकर।
देख हम मस्तक नवायें...
तिमिर में दीपक बनेंगे।
शून्य में भी सुनेंगे।
नाद अनहद गूंजता जो
सुन 'सलिल' सबको सुनायें...

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

गीत

आशीषों की छाँव कहाँ है?...

सिसक रहा बेबस अंतर्मन,
दुनिया लगती है बेमानी।
कहाँ गयीं मेरी प्यारी माँ?
तुम सचमुच थीं लासानी।

नेह नर्मदा थीं तुम निर्मल
मुझ निर्बल का तुम थीं बल-
व्याकुल मेरे प्राण पूछते
हे ईश्वर! वह ठाँव कहाँ है?
आशीषों की छाँव कहाँ है?...

रक्षा कवच रहीं तुम मेरा,
दूर हमेशा किया अँधेरा।
सूरज निकले तो भी लगता-
जीवन से है दूर सवेरा।

छिप-छिप कर आँसू पीता हूँ,
झूठी हँसी रोज जीता हूँ।
गयी जहाँ हो हमें छोड़कर
बतलाओ वह गाँव कहाँ है?
आशीषों की छाँव कहाँ है?...

अविचल अडिग दिख रहे पापा
लेकिन मन में धीर नहीं है।
उनके एकाकी अन्तर सी-
गहरी कोई पीर नहीं है।

हाथ जोड़कर तुम्हें मनाऊँ,
आँचल में छिपकर सो जाऊँ।
जिन्हें नमन कर धन्य हो सकूँ
ऐसे माँ के पाँव कहाँ हैं?
आशीषों की छाँव कहाँ है?...

रूठ गयीं क्यों संतानों से?
नेह किया क्यों भगवानों से?
अपने पल में हुए पराये-
मोह हो गया अनजानों से?

भवसागर के पार गयीं
तुमहमें छोड़ इस तीर किनारे।
तुमसे हमें मिला दे मैया!
शीघ्र बताओ नाव कहाँ है?
आशीषों की छाँव कहाँ है?...

तुमसे पाया सदा सहारा।
अब तुमने ही हमें बिसारा।
मझधारों में छोड़ कर लिया-
चुप सबको कर दूर किनारा।

नेह नर्मदा बहे बीच में
पर हम अलग किनारों पर हैं।
जो पुरखों से सूत्र जोड़ दे
वह कागा की काँव कहाँ है?
आशीषों की छाँव कहाँ है?...

कोष छिन गया है ममता का-
वापिस कभी न ला पायेंगे?
माँ तेरी ममता की महिमा
ले सौ जन्म न गा पायेंगे।

शांत हुईं तुम, शान्ति खो गयी
विधि अशांति के बीज बो गयी
साँस-आस की बाजी हारे
जयी करे जो दाँव कहाँ है?
आशीषों की छाँव कहाँ है?...

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शनिवार, 17 जनवरी 2009

अम्ब विमल मति दे

हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....

नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....

बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....

कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
वह बल-विक्रम दे.....

हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....

नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
' सलिल' विमल प्रवहे.....

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गीत सलिला

समय - समय की बात

कभी तीर पर, कभी धार में,
समय - समय की बात...

बिन मजबूरी करें अहर्निश,
चुप रहकर बेगार,
सूर्य-चन्द्र जैसा जन-गण तो-
क्यों सुधरे सरकार?
यहाँ पूर्णिमा-वहाँ अमावस
दोनों की है मात...

गति, यति, पिंगल, लय बिन
कविता बिना गंध का फूल।
नियम व्याकरण की पंखुडियाँ,
सिर्फ़ शब्द हैं चुभते शूल।
सत-शिव-सुंदर मूल्य समाहित
रचना नव्य प्रभात ...

जनमत भुला मांगते जन-मत,
नेता बने भिखारी।
रिश्वत लेते रहे नगद पर-
वादे करें उधारी।
नेता, अफसर, व्यापारी ने
नष्ट किए ज़ज्बात...

नहीं सभ्यता और संस्कृति के
प्रति किंचित प्यार।
देश सनातन हाय! बन
गयाअब विशाल बाज़ार।
आग लगाये जो उसको ही
पाल रहे हैं तात...

कोई किसी का मीत नहीं,
यह कैसी बेढब रीत?
कागा के स्वर में गाती क्यों
कोयल बेसुर गीत?
महाराष्ट्र का राज राष्ट्र से-
'सलिल' करे क्यों घात?...

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शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

गीत सलिला

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

संसद थाना जा पछताना....

संसद थाना
जा पछताना....

जागा चोर
सिपाही सोया
पाया थोड़ा
ज्यादा खोया
आजादी है
कर मनमाना...

जो कुर्सी पर
बैठा, एंठा
ताश समझ
जनता को फेंटा
सच्चों को
झूठा बतलाना...

न्याय तराजू
थामे अँधा
काले कोट
कर रहे धंधा
सह अन्याय
न तू चिल्लाना...

बटमारों के
हाथ प्रशासन
लोकतंत्र है
महज दुशासन
रिश्वत नित
मनमाना खाना...

डंडा-पंडा
झंडी-झंडा
शाकाहारी कह
खा अंडा
प्रभु को दिखा
भोग ख़ुद पाना...

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मंगलवार, 26 अगस्त 2008

गीत: आओ, लड़ें चुनाव

लोकतंत्र के
बनें मसीहा

आओ, लड़ें चुनाव।
बेचें अपनी
निष्ठाओं को,

रोज बढाएं भाव...

जय-जयकार
करें ख़ुद अपनी

सदा अलग हो
कथनी-करनी।

श्वेत वसन
काला अंतर्मन
स्वार्थ-सिद्धि की
माला जपनी।

अधरों पर
मुस्कान छद्म हो,
कभी न
खाएं ताव...


जन-गण को
ठेंगा दिखलायें।

जन-मत को
तत्काल भुलाएँ।
सिद्धांतों को
बेच-खरीदें-
जन-मन को
हर रोज लुभाएँ।

दिन दूने औ'
रात चौगुने
जीत बढाएं भाव...

चमचे पालें,
भीड़ जुटाएं।

अमन-चैन को
आग लगाएं।
जुलुस निकालें,
पत्थर फेंकें,
अख़बारों में
चित्र छ्पायें।

नकली आँसू,
असली माला
दोनों अपना दांव...

जाति, क्षेत्र,
भाषा के झगडे।

मजहब के
नुस्खे हैं तगडे
बंदर-बाँट
नीति अपनाएं

कभी न सुलझें
झंझट-झगडे।

कोशिश अपनी
हर घर में हो,
मन-मन में अलगाव...


जाए भाड़ में
देश बिचारा

हमको तो
सत्ता-पद प्यारा

जंगल काटें,
पर्वत खोदें।

बेच-करें
निज वारा-न्यारा।
मुंह में राम
बगल में छूरी
अपना सही स्वभाव...

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गीत: स्वप्नों को आने दो

स्वप्नों को आने दो,
द्वार खटखटाने दो।
स्वप्नों की दुनिया में
ख़ुद को खो जाने दो...

जब हम थक सोते हैं,
हार मान रोते हैं।
सपने आ चुपके से
उम्मीदें बोते हैं।
कोशिश का हल-बक्खर
नित यथार्थ धरती पर
आशा की मूठ थाम
अनवरत चलाने दो...

मन को मत भरमाओ,
सच से मत शर्माओ।
साज उठा, तार छेड़,
राग नया निज गाओ।
ऊषा की लाली ले,
नील गगन प्याली ले।
कर को कर तूलिका
मन को कुछ बनाने दो...

नर्मदा सा बहना है।
निर्मलता गहना है।
कालकूट पान कर
कंठ-धार गहना है।
उत्तर दो उत्तर को,
दक्षिण से आ अगस्त्य।
बहुत झुका विन्ध्य दीं
अब तो सिर उठाने दो...

क्यों गुपचुप बैठे हो?
विजन वन में पैठे हो।
धर्म-कर्म मर्म मान,
किसी से न हेठे हो।
आँख मूँद चलना मत,
ख़ुद को ख़ुद छलना मत।
ऊसर में आशान्कुर
पल्लव उग आने दो...

********

गीत: संध्या के माथे पर

संध्या के माथे पर
सूरज सिंदूर।
मोह रहा मन को
नीलाभी नभ-नूर...

बांचते परिंदे नित
प्रेम की कथाएँ।
घोंसले छिपाते
अनुबंध की व्यथाएं।
अंतर के मंतर से
अंतर्मन घायल-
भुला रही भाषायें
नेह की कथाएं।
अपने ही सपने
कर देते हैं चूर...

चिमनियाँ उगलती हैं,
रात-दिन धुंआ।
खान-कारखाने हैं,
मौत का कुँआ।
पूँजी के हाथ बिके
कौशल बेभाव-
भूखा सो गया, श्रम का
जठर फ़िर मुआं।
मदमाती हूटर की
कर्कश ध्वनि क्रूर...

शिक्षा की आहट,
नव कोशिश का दौर।
कोयल की कूक कहे
आम रहे बौर।
खास का न ग्रास बने
आम जन बचाओ।
चेतना मचान पर
सच की हो ठौर।
मृगनयनी नियतिनटी
जाने क्यों सूर?...

उषा वन्दनाएँ
रह गयीं अनपढ़ी।

दोपहर की भाग-दौड़
हाय अनगढ़ी।

संध्या को मोहिनी
प्रार्थना पदी।

साधना से अर्चना
कोसों है दूर...

लें-देन लील गया
निर्मल विश्वास।

स्वार्थहीन संबधों
पर है खग्रास।
तज गणेश अंक लिटा
लिखा रहे आज-

गीत-ग़ज़ल मेनका को
महा ऋषि व्यास।

प्रथा पूत तज चढाये
माथे पर धूर...

सीमेंटी भवन निठुर
लील लें पलाश

नेहहीन नातों की
ढोता युग लाश

तमस से अमावस के
ऊगेगी भोर-

धर्म-मर्म कर्म मान
लक्ष्य लें तलाश।

धीर धरो, पीर सहो,
काटो नासूर...

बहुत झुका विन्ध्य,
सिर उठाये-हँसे।

नर्मदा को जोहिला का
दंश न डँसे।

गुरु-गौरव द्रोण करे
पुनः न नीलाम-
कीचक के कपट में
सैरंध्री न फंसे।

'सलिल' सत्य कान्हा को
भज बनकर सूर...
*****

नवगीत : ओढ़ कुहासे की चादर

नवगीत : 

ओढ़ कुहासे की चादर

 संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओढ़ कुहासे की चादर,

धरती लगाती दादी।

ऊँघ रहा सतपुडा,

लपेटे मटमैली खादी...



सूर्य अंगारों की सिगडी है,

ठण्ड भगा ले भैया।

श्वास-आस संग उछल-कूदकर

नाचो ता-ता थैया।

तुहिन कणों को हरित दूब,

लगती कोमल गादी...



कुहरा छाया संबंधों पर,

रिश्तों की गरमी पर।

हुए कठोर आचरण अपने,

कुहरा है नरमी पर।

बेशरमी नेताओं ने,

पहनी-ओढी-लादी...



नैतिकता की गाय काँपती,

संयम छत टपके।

हार गया श्रम कोशिश कर,

कर बार-बार अबके।

मूल्यों की ठठरी मरघट तक,

ख़ुद ही पहुँचा दी...



भावनाओं को कामनाओं ने,

हरदम ही कुचला।

संयम-पंकज लालसाओं के

पंक-फँसा-फिसला।

अपने घर की अपने हाथों

कर दी बर्बादी...



बसते-बसते उजड़ी बस्ती,

फ़िर-फ़िर बसना है।

बस न रहा ख़ुद पर तो,

परबस 'सलिल' तरसना है।

रसना रस ना ले,

लालच ने लज्जा बिकवा दी...



हर 'मावस पश्चात्

पूर्णिमा लाती उजियारा।

मृतिका दीप काटता तम् की,

युग-युग से कारा।

तिमिर पिया, दीवाली ने

जीवन जय गुंजा दी...




*****