शनिवार, 14 नवंबर 2009

नवगीत: दवा ज़हर की सिर्फ ज़हर है... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

दवा ज़हर की
सिर्फ ज़हर है...
*
विश्वासों को
तजकर दुनिया
सीख-सिखाती तर्क.
भुला रही
असली नकली में
कैसा, क्या है फर्क?
अमृत सागर सुखा
पूछती कहाँ खो गयी
हर्ष-लहर है...
*
राष्ट्र भूलकर
महाराष्ट्र की
चिंता करता राज.
असल नहीं, अब
हमें असल से
ज्यादा प्यारा ब्याज.
प्रकृति पुत्र है,
प्रकृति का शोषक
ढाता रोज कहर है....
*
दुनिया पूज रही
हिंदी को.
हमें न तनिक सुहाती.
परदेशी भाषा
अन्ग्रेज़ी हमको
'सलिल' लुभाती.
लिखीं हजारों गजल
न लेकिन हमको
ज्ञात बहर है...
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शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

नवगीत: हिंद और हिंदी की जय हो... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
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मंगलवार, 10 नवंबर 2009

नवगीत: बैठ मुंडेरे कागा बोले आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

बैठ मुंडेरे

कागा बोले

काँव, काँव का काँव.

लोकतंत्र की चौसर

शकुनी चलता

अपना दाँव.....
*
जनता

द्रुपद-सुता बेचारी.

कौरव-पांडव

खींचें साड़ी.

बिलख रही

कुररी की नाईं

कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल

हुई है

सूनी अमराई.

पनघट सिसके

कहीं न दिखतीं

ननदी-भौजाई.

राजनीति ने

रिश्ते निगले

सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो

भूख नहीं है.

नहीं भूख को दाना.

नादाँ स्वामी,

सेवक दाना

सबल करे मनमाना.

सूरज

अन्धकार का कैदी

आसमान पर छाँव...
*