शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

गीत... प्रतिभा खुद में वन्दनीय है... संजीव 'सलिल'

प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
संजीव 'सलिल'
*
   




 




  

  
    *
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
*
प्रतिभा मेघा दीप्ति उजाला
शुभ या अशुभ नहीं होता है.
वैसा फल पाता है साधक-
जैसा बीज रहा बोता है.

शिव को भजते राम और
रावण दोनों पर भाव भिन्न है.
एक शिविर में नव जीवन है
दूजे का अस्तित्व छिन्न है.

शिवता हो या भाव-भक्ति हो
सबको अब तक प्रार्थनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.....
*
अन्न एक ही खाकर पलते
सुर नर असुर संत पशु-पक्षी.
कोई अशुभ का वाहक होता
नहीं किसी सा है शुभ-पक्षी.

हो अखंड या खंड किन्तु
राकेश तिमिर को हरता ही है.
पूनम और अमावस दोनों
संगिनीयों को वरता भी है
 
भू की उर्वरता-वत्सलता
'सलिल' सभी को अर्चनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*

    कौन पुरातन और नया क्या?
    क्या लाये थे?, साथ गया क्या?
    राग-विराग सभी के अन्दर-
    क्या बेशर्मी और हया क्या?

    अतिभोगी ना अतिवैरागी.
    सदा जले अंतर में आगी.
    नाश और निर्माण संग हो-
    बने विरागी ही अनुरागी.

    प्रभु-अर्पित निष्काम भाव से
    'सलिल'-साधना साधनीय है.
    प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
    *

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

गीत: हिन्दी ममतामय मैया है... संजीव 'सलिल

गीत:

हिन्दी ममतामय मैया है...


संजीव 'सलिल'

*






















*
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
सूर कबीर रहीम देव
तुलसी
से बेटों की मैया.
खुसरो बरदाई मीरां
जगनिक
खेले इसकी कैंया.

घाघ भड्डरी ईसुरी गिरिधर
जगन्नाथ भूषण
मतिमान.
विश्वनाथ श्री क्षेमचंद्र
जयदेव वृन्द
लय-रस की खान.

जायसी रायप्रवीण बिहारी
सेनापति
बन लाड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
बिम्ब प्रतीक व्याकरण पिंगल
क्षर-अक्षर रसलीन रहो.
कर्ताकारक कर्म क्रिया उपयुक्त
न रख क्यों दीन रहो?

रसनिधि
शब्द-शब्द चुनकर
बुनकर अभिनव ताना-बाना.
बन जाओ रसखान काव्य की 
गगरी निश-दिन छलकाना.

तत्सम-तद्भव लगे डिठौना

किन्तु न तिल को ताड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*

जिस ध्वनि का जैसा उच्चारण

वैसा लिखना हिन्दी है.
जैसा लिखना वैसा पढ़ना
वही समझना हिंदी है.

मौन न रहता कोई अक्षर,

गिरता कोई हर्फ़ नहीं.
एक वर्ण के दो उच्चारण
दो उच्चारो- वर्ण नहीं.

करो 'सलिल' पौधों का रोपण,

अब मत रोपा झाड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*



Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

अभिनव प्रयोग दोहा-हाइकु गीत प्रतिभाओं की कमी नहीं... संजीव 'सलिल'

अभिनव प्रयोग

दोहा-हाइकु गीत

प्रतिभाओं की कमी नहीं...

संजीव 'सलिल'
*















*
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
         धूप-छाँव का खेल है
         खेल सके तो खेल.
         हँसना-रोना-विवशता
         मन बेमन से झेल.

         दीपक जले उजास हित,
         नीचे हो अंधेर.
         ऊपरवाले को 'सलिल' 
         हाथ जोड़कर टेर.

         उसके बिन तेरा नहीं
         कोई कहीं अस्तित्व.
         तेरे बिन उसका कहाँ
         किंचित बोल प्रभुत्व?

क्षमताओं की
कमी नहीं किंचित
समताओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
       पेट दिया दाना नहीं.
       कैसा तू नादान?
       'आ, मुझ सँग अब माँग ले-
        भिक्षा तू भगवान'.

        मुट्ठी भर तंदुल दिए,
        भूखा सोया रात.
        लड्डूवालों को मिली-
        सत्ता की सौगात.

       मत कहना मतदान कर,
       ओ रे माखनचोर.
       शीश हमारे कुछ नहीं.
       तेरे सिर पर मोर.

उपमाओं की
कमी नहीं किंचित
रचनाओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 25 जुलाई 2010

चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल'

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चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।

विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।

कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।

वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, नेह नर्मदा नाद।

'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।

जो काया को मानते, परमब्रम्ह का अंश।
'सलिल' वही कायस्थ हैं, ब्रम्ह-अंश-अवतंश।

निराकार परब्रम्ह का, कोई नहीं है चित्र।
चित्र गुप्त पर मूर्ति हम, गढ़ते रीति विचित्र।

निराकार ने ही सृजे, हैं सारे आकार।
सभी मूर्तियाँ उसी की, भेद करे संसार।

'कायथ' सच को जानता, सब को पूजे नित्य।
भली-भाँति उसको विदित, है असत्य भी सत्य।

अक्षर को नित पूजता, रखे कलम भी साथ।
लड़ता है अज्ञान से, झुका ज्ञान को माथ।

जाति वर्ण भाषा जगह, धंधा लिंग विचार।
भेद-भाव तज सभी हैं, कायथ को स्वीकार।

भोजन में जल के सदृश, 'कायथ' रहता लुप्त।
सुप्त न होता किन्तु वह, चित्र रखे निज गुप्त।

चित्र गुप्त रखना 'सलिल', मन्त्र न जाना भूल।
नित अक्षर-आराधना, है कायथ का मूल।

मोह-द्वेष से दूर रह, काम करे निष्काम।
चित्र गुप्त को समर्पित, काम स्वयं बेनाम।

सकल सृष्टि कायस्थ है, सत्य न जाना भूल।
परमब्रम्ह ही हैं 'सलिल', सकल सृष्टि के मूल।

अंतर में अंतर न हो, सबसे हो एकात्म।
जो जीवन को जी सके, वह 'कायथ' विश्वात्म।
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