रंगों का नव पर्व बसंती
रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
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बुधवार, 24 फ़रवरी 2010
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
गीत : सबको हक है जीने का --संजीव 'सलिल'
गीत :
संजीव 'सलिल'
सबको हक है जीने का,
चुल्लू-चुल्लू पीने का.....
*
जिसने पाई श्वास यहाँ,
उसने पाई प्यास यहाँ.
चाह रचा ले रास यहाँ.
हर दिन हो मधुमास यहाँ.
आह न हो, हो हास यहाँ.
आम नहीं हो खास यहाँ.
जो चाहा वह पा जाना
है सौभाग्य नगीने का.....
*
कोई अधूरी आस न हो,
स्वप्न काल का ग्रास न हो.
मनुआ कभी उदास न हो,
जीवन में कुछ त्रास न हो.
विपदा का आभास न हो.
असफल भला प्रयास न हो.
तट के पार उतरना तो
है अधिकार सफीने का.....
*
तम है सघन, उजास बने.
लक्ष्य कदम का ग्रास बने.
ईश्वर का आवास बने.
गुल की मदिर सुवास बने.
राई, फाग हुलास बने.
खास न खासमखास बने.
ज्यों की त्यों चादर रख दें
फन सीखें हम सीने का.....
******
संजीव 'सलिल'
सबको हक है जीने का,
चुल्लू-चुल्लू पीने का.....
*
जिसने पाई श्वास यहाँ,
उसने पाई प्यास यहाँ.
चाह रचा ले रास यहाँ.
हर दिन हो मधुमास यहाँ.
आह न हो, हो हास यहाँ.
आम नहीं हो खास यहाँ.
जो चाहा वह पा जाना
है सौभाग्य नगीने का.....
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कोई अधूरी आस न हो,
स्वप्न काल का ग्रास न हो.
मनुआ कभी उदास न हो,
जीवन में कुछ त्रास न हो.
विपदा का आभास न हो.
असफल भला प्रयास न हो.
तट के पार उतरना तो
है अधिकार सफीने का.....
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तम है सघन, उजास बने.
लक्ष्य कदम का ग्रास बने.
ईश्वर का आवास बने.
गुल की मदिर सुवास बने.
राई, फाग हुलास बने.
खास न खासमखास बने.
ज्यों की त्यों चादर रख दें
फन सीखें हम सीने का.....
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