शनिवार, 18 सितंबर 2010

नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

अपना हर पल
है हिन्दीमय
संजीव 'सलिल'
*
*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?

बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
                                                                                                 
*

निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.

घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.

ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...

                                                                                                   हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.

जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?

इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...

ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.

कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.

वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...

अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.

नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.

देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...

अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.

सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.

हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...

********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

गीत: मनुज से... संजीव 'सलिल'

गीत:

मनुज से...

संजीव 'सलिल'
*

*
न आये यहाँ हम बुलाये गये हैं.
तुम्हारे ही हाथों बनाये गये हैं.
ये सच है कि निर्मम हैं, बेजान हैं हम,
कलेजे से तुमको लगाये गये हैं.

नहीं हमने काटा कभी कोई जंगल
तुम्हीं कर रहे थे धरा का अमंगल.
तुमने ही खोदे थे पर्वत और टीले-
तुम्हीं ने किया पाट तालाब दंगल..

तुम्हीं ने बनाये ये कल-कारखाने.
तुम्हीं जुट गये थे भवन निज बनाने.
तुम्हारी हवस का न है अंत लोगों-
छोड़ा न अवसर लगे जब भुनाने..

कोयल की छोड़ो, न कागा को छोड़ा.
कलियों के संग फूल कांटा भी तोड़ा.
तुलसी को तज, कैक्टस शत उगाये-
चुभे आज काँटे हुआ दर्द थोड़ा..

मलिन नेह की नर्मदा तुमने की है.
अहम् के वहम की सुरा तुमने पी है.
न सम्हले अगर तो मिटोगे ये सुन लो-
घुटन, फ़िक्र खुद को तुम्हीं ने तो दी है..

हूँ रचना तुम्हारी, तुम्हें जानती हूँ.
बचाऊँगी तुमको ये हाथ ठानती हूँ.
हो जैसे भी मेरे हो, मेरे रहोगे-
इरादे तुम्हारे मैं पहचानती हूँ..

नियति का इशारा समझना ही होगा.
प्रकृति के मुताबिक ही चलना भी होगा.
मुझे दोष देते हो नादां हो तुम-
गिरे हो तो उठकर सम्हलना भी होगा..

ये कोंक्रीटी जंगल न ज्यादा उगाओ.
धरा-पुत्र थे, फिर धरा-सुत कहाओ..
धरती को सींचो, पुनः वन उगाओ-
'सलिल'-धार संग फिर हँसो-मुस्कुराओ..

नहीं है पराया कोई, सब हैं अपने.
अगर मान पाये, हों साकार सपने.
बिना स्वर्गवासी हुए स्वर्ग पाओ-
न मंगल पे जा, भू का मंगल मनाओ..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

नव गीत: क्या?, कैसा है?... संजीव 'सलिल'

नव गीत:

क्या?, कैसा है?...

संजीव 'सलिल'
*
*क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
भू की बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*****************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.कॉम

बाल गीत: लंगडी खेलें..... आचार्य संजीव 'सलिल'

बाल गीत:             लंगडी खेलें.....          आचार्य संजीव 'सलिल' 

**                                                                                              

आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************

नवगीत: मेघ बजे --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

मेघ बजे

संजीव 'सलिल'
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे...
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी...

तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
*
पल्लव की करताल,

बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये,
मेड़ छुईमुई हुई..

जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए.
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
टप-टप टपके टीन,
चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!,
पढ़ाये को आखर?

डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
*******************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम