मंगलवार, 26 अगस्त 2008

गीत: संध्या के माथे पर

संध्या के माथे पर
सूरज सिंदूर।
मोह रहा मन को
नीलाभी नभ-नूर...

बांचते परिंदे नित
प्रेम की कथाएँ।
घोंसले छिपाते
अनुबंध की व्यथाएं।
अंतर के मंतर से
अंतर्मन घायल-
भुला रही भाषायें
नेह की कथाएं।
अपने ही सपने
कर देते हैं चूर...

चिमनियाँ उगलती हैं,
रात-दिन धुंआ।
खान-कारखाने हैं,
मौत का कुँआ।
पूँजी के हाथ बिके
कौशल बेभाव-
भूखा सो गया, श्रम का
जठर फ़िर मुआं।
मदमाती हूटर की
कर्कश ध्वनि क्रूर...

शिक्षा की आहट,
नव कोशिश का दौर।
कोयल की कूक कहे
आम रहे बौर।
खास का न ग्रास बने
आम जन बचाओ।
चेतना मचान पर
सच की हो ठौर।
मृगनयनी नियतिनटी
जाने क्यों सूर?...

उषा वन्दनाएँ
रह गयीं अनपढ़ी।

दोपहर की भाग-दौड़
हाय अनगढ़ी।

संध्या को मोहिनी
प्रार्थना पदी।

साधना से अर्चना
कोसों है दूर...

लें-देन लील गया
निर्मल विश्वास।

स्वार्थहीन संबधों
पर है खग्रास।
तज गणेश अंक लिटा
लिखा रहे आज-

गीत-ग़ज़ल मेनका को
महा ऋषि व्यास।

प्रथा पूत तज चढाये
माथे पर धूर...

सीमेंटी भवन निठुर
लील लें पलाश

नेहहीन नातों की
ढोता युग लाश

तमस से अमावस के
ऊगेगी भोर-

धर्म-मर्म कर्म मान
लक्ष्य लें तलाश।

धीर धरो, पीर सहो,
काटो नासूर...

बहुत झुका विन्ध्य,
सिर उठाये-हँसे।

नर्मदा को जोहिला का
दंश न डँसे।

गुरु-गौरव द्रोण करे
पुनः न नीलाम-
कीचक के कपट में
सैरंध्री न फंसे।

'सलिल' सत्य कान्हा को
भज बनकर सूर...
*****

4 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय वर्मा जी /अगस्त के बाद से हमें साहित्य से बंचित क्यों कर रखा है / पाठकों को लाभान्वित कीजिये /अगली रचना के इंतज़ार में आपका [[आजकल प्रार्थियों के नाम लिखने की जरूरत ही कहाँ रह गई है =अपन दोनो मिलेंगे जीने का मज़ा आएगा

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  2. अद्भुत ! अद्भुत ! अद्वितीय !

    मैं बृजमोहन जी से शब्दशः सहमत हूँ. कृपया अपनी लेखनी को को यूँ अवरुद्ध न करें.

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