शनिवार, 5 दिसंबर 2009

नवगीत: मौन निहारो... संजीव 'सलिल'

नवगीत:




संजीव 'सलिल'



रूप राशि को

मौन निहारो...

*

पर्वत-शिखरों पर जब जाओ,

स्नेहपूर्वक छू सहलाओ.

हर उभार पर, हर चढाव पर-

ठिठको, गीत प्रेम के गाओ.

स्पर्शों की संवेदन-सिहरन

चुप अनुभव कर निज मन वारो.

रूप राशि को

मौन निहारो...

*

जब-जब तुम समतल पर चलना,

तनिक सम्हलना, अधिक फिसलना.

उषा सुनहली, शाम नशीली-

शशि-रजनी को देख मचलना.

मन से तन का, तन से मन का-

दरस करो, आरती उतारो.

रूप राशि को

मौन निहारो...

*

घटी-गव्ह्रों में यदि उतरो,

कण-कण, तृण-तृण चूमो-बिखरो.

चन्द्र-ज्योत्सना, सूर्य-रश्मि को

खोजो, पाओ, खुश हो निखरो.

नेह-नर्मदा में अवगाहन-

करो 'सलिल' पी कहाँ पुकारो.

रूप राशि को

मौन निहारो...

*

नवगीत: डर लगता है --संजीव 'सलिल'

नवगीत:



संजीव 'सलिल'

डर लगता है


आँख खोलते...


*


कालिख हावी है


उजास पर.


जयी न कोशिश


क्षुधा-प्यास पर.


रुदन हँस रहा


त्रस्त हास पर.


आम प्रताड़ित


मस्त खास पर.


डर लगता है


बोल बोलते.


डर लगता है


आँख खोलते...


*


लूट फूल को


शूल रहा है.


गरल अमिय को


भूल रहा है.


राग- द्वेष का


मूल रहा है.


सर्प दर्प का


झूल रहा है.


डर लगता है


पोल खोलते.


डर लगता है


आँख खोलते...


*


आसमान में


तूफाँ छाया.


कर्कश स्वर में


उल्लू गाया.


मन ने तन को


है भरमाया.


काया का


गायब है साया.


डर लगता है


पंख तोलते.


डर लगता है


आँख खोलते...


*

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

नव गीत: सागर उथला / पर्वत गहरा... --संजीव 'सलिल'

नव गीत:

संजीव 'सलिल'

सागर उथला,

पर्वत गहरा...
*

डाकू तो ईमानदार

पर पाया चोर सिपाही.

सौ पाए तो हैं अयोग्य,

दस पायें वाहा-वाही.

नाली का

पानी बहता है,

नदिया का

जल ठहरा.

सागर उथला,

पर्वत गहरा...

*

अध्यापक को सबक सिखाता

कॉलर पकड़े छात्र.

सत्य-असत्य न जानें-मानें,

लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.

बहस कर रहा

है वकील

न्यायालय

गूंगा-बहरा.

सागर उथला,

पर्वत गहरा...

*

मना-मनाकर भारत हारा,

लेकिन पाक न माने.

लातों का जो भूत

बात की भाषा कैसे जाने?

दुर्विचार ने

सद्विचार का

जाना नहीं

ककहरा.

सागर उथला,

पर्वत गहरा...

*

नवगीत: काया माटी / माया माटी

नवगीत:




संजीव 'सलिल'



काया माटी,

माया माटी,

माटी में-

मिलना परिपाटी...

*

बजा रहे

ढोलक-शहनाई,

होरी,कजरी,

फागें, राई,

सोहर गाते

उमर बिताई.

इमली कभी

चटाई-चाटी...

*

आडम्बर करना

मन भाया.

खुद को खुद से

खुदी छिपाया.

पाया-खोया,

खोया-पाया.

जब भी दूरी

पाई-पाटी...

*

मौज मनाना,

अपना सपना.

नहीं सुहाया

कोई नपना.

निजी हितों की

माला जपना.

'सलिल' न दांतों

रोटी काटी...

*

चाह बहुत पर

राह नहीं है.

डाह बहुत पर

वाह नहीं है.

पर पीड़ा लख

आह नहीं है.

देख सचाई

छाती फाटी...

*

मैं-तुम मिटकर

हम हो पाते.

खुशियाँ मिलतीं

गम खो जाते.

बिन मतलब भी

पलते नाते.

छाया लम्बी

काया नाटी...

*

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

नवगीत: पलक बिछाए / राह हेरते...

नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

पलक बिछाए
राह हेरते...
*
जनगण स्वामी
खड़ा सड़क पर.
जनसेवक
जा रहा झिड़ककर.
लट्ठ पटकती
पुलिस अकड़कर.
अधिकारी
गुर्राये भड़ककर.
आम आदमी
ट्रस्ट-टेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
लोभ,
लोक-आराध्य हुआ है.
प्रजातंत्र का
मंत्र जुआ है.
'जय नेता की'
करे सुआ है.
अंत न मालुम
अंध कुआ है.
अन्यायी मिल
मार-घेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
मुंह में राम
बगल में छूरी.
त्याग त्याज्य
आराम जरूरी.
जपना राम
हुई मजबूरी.
जितनी गाथा
कहो अधूरी.
अपने सपने
'सलिल' पेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*

नवगीत: जब तक कुर्सी/तब तक ठाठ...

नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
नाच जमूरा,
नचा मदारी.
सत्ता भोग,
करा बेगारी.
कोइ किसी का
सगा नहीं है.
स्वार्थ साधने
करते यारी.
फूँको नैतिकता
ले काठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
बेच-खरीदो
रोज देश को.
अस्ध्य मान लो
सिर्फ ऐश को.
वादों का क्या
किया-भुलाया.
लूट-दबाओ
स्वर्ण-कैश को.
झूठ आचरण
सच का पाठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
मन पर तन ने
राज किया है.
बिजली गायब
बुझा दिया है.
सच्चाई को
छिपा रहे हैं.
भाई-चारा
निभा रहे हैं.
सोलह कहो
भले हो साठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*