बुधवार, 4 नवंबर 2009

नव गीत घर को 'सलिल'/मकान मत कहो...

नव गीत

संजीव 'सलिल'

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
कंकर में
शंकर बसता है
देख सको तो देखो.

कण-कण में
ब्रम्हांड समाया
सोच-समझ कर लेखो.

जो अजान है
उसको तुम
बेजान मत कहो.

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
*
भवन, भावना से
सम्प्राणित
होते जानो.

हर कमरे-
कोने को
देख-भाल पहचानो.

जो आश्रय देता
है देव-स्थान
नत रहो.

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर के प्रति
श्रद्धानत हो
तब खेलो-डोलो.

घर के
कानों में स्वर
प्रीति-प्यार के घोलो.

घर को
गर्व कहो लेकिन
अभिमान मत कहो.

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
स्वार्थों का
टकराव देखकर
घर रोता है.

संतति का
भटकाव देख
धीरज खोता है.

नवता का
आगमन, पुरा-प्रस्थान
मत कहो.

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर भी
श्वासें लेता
आसों को जीता है.

तुम हारे तो
घर दुःख के
आँसू पीता है.

जयी देख घर
हँसता, मैं अनजान
मत कहो.

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

स्मृति गीत: संजीव 'सलिल'

स्मृति गीत:

संजीव 'सलिल'

सृजन विरासत

तुमसे पाई...

*

अलस सवेरे

उठते ही तुम,

बिन आलस्य

काम में जुटतीं.

सिगडी, सनसी,

चिमटा, चमचा

चौके में

वाद्यों सी बजतीं.

देर हुई तो

हमें जगाने

टेर-टेर

आवाज़ लगाई.

सृजन विरासत

तुमसे पाई...

*

जेल निरीक्षण

कर आते थे,

नित सूरज

उगने के पहले.

तव पाबंदी,

श्रम, कर्मठता

से अपराधी

रहते दहले.

निज निर्मित

व्यक्तित्व, सफलता

पाकर तुमने

सहज पचाई.

सृजन विरासत

तुमसे पाई...

*

माँ!-पापा!

संकट के संबल

गए छोड़कर

हमें अकेला.

विधि-विधान ने

हाय! रख दिया

है झिंझोड़कर

विकट झमेला.

तुम बिन

हर त्यौहार अधूरा,

खुशी पराई.

सृजन विरासत

तुमसे पाई...

*

यह सूनापन

भी हमको

जीना ही होगा

गए मुसाफिर.

अमिय-गरल

समभावी हो

पीना ही होगा

कल की खातिर.

अब न

शीश पर छाँव,

धूप-बरखा मंडराई.

सृजन विरासत

तुमसे पाई...

*

वे क्षर थे,

पर अक्षर मूल्यों

को जीते थे.

हमने देखा.

कभी न पाया

ह्रदय-हाथ

पल भर रीते थे

युग ने लेखा.

सुधियों का

संबल दे

प्रति पल राह दिखाई..

सृजन विरासत

तुमसे पाई...


*

रविवार, 1 नवंबर 2009

नवगीत: भुज भर भेंटो...

आज की रचना:

नवगीत

संजीव 'सलिल'

फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.

घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.

फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.

निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.

फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.

फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो.

फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com