बुधवार, 17 जनवरी 2018
सोमवार, 15 जनवरी 2018
दोहा दुनिया
शिव को पा सकते नहीं,
शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे,
मिलें अगर अनुराग।।
*
शिव को भज निष्काम हो,
शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे,
शिव हैं आप अनाम।।
*
वृषभ-देव शिव दिगंबर,
ढंकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें,
पूर्ण करें हर काज।।
*
शिव से छल करना नहीं,
बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से,
बजा श्वास संतूर।।
*
शिव त्रिनेत्र से देखते,
तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते,
करते कभी न भेद।।
***
१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली
सोमवार, 17 अगस्त 2015
muktak geet
मुक्तक गीत
संजीव
*
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
भाग गया परदेशी शासन
गूँज रहे निज देशी भाषण
वीर शहीद स्वर्ग से हेरें
मँहगा होता जाता राशन
रँगे सियार शीर्ष पर बैठे
मालिक बेबस नौकर ऐंठे
कद बौने, लंबी परछाई
सूरज लज्जित, जुगनू ऐंठे
सेठों की बन आयी, भाई
मतदाता की शामत आई
प्रतिनिधि हैं कुबेर, मतदाता
हुआ सुदामा, प्रीत न भायी
मन ने चाही मन की बातें
मन आहत पा पल-पल घातें
तब-अब चुप्पी-बहस निरर्थक
तब भी, अब भी काली रातें
ढोंग कर रहे
संत फकीरा
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
जनसेवा का व्रत लेते जो
धन-सुविधा पा क्षय होते वो
जनमत की करते अवहेला
जनहित बेच-खरीद गये सो
जनहित खातिर नित्य ग्रहण बन
जन संसद को चुभे दहन सम
बन दलाल दल करते दलदल
फैलाते केवल तम-मातम
सरहद पर उग आये कंटक
हर दल को पर दल है संकट
नाग, साँप, बिच्छू दल आये
किसको चुनें-तजें, है झंझट
क्यों कोई उम्मीदवार हो?
जन पर क्यों बंदिश-प्रहार हो?
हर जन जिसको चाहे चुन ले
इतना ही अब तो सुधार हो
मत मतदाता
बने जमूरा?
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
चयनित प्रतिनिधि चुन लें मंत्री
शासक नहीं, देश के संत्री
नहीं विपक्षी, नहीं विरोधी
हटें दूर पाखंडी तंत्री
अधिकारी सेवक मनमानी
करें न, हों विषयों के ज्ञानी
पुलिस न नेता, जन-हित रक्षक
हो, तब ऊगे भोर सुहानी
पारदर्शितामय पंचायत
निर्माणों की रचकर आयत
कंकर से शंकर गढ़ पाये
सब समान की बिछा बिछायत
उच्छृंखलता तनिक नहीं हो
चित्र गुप्त अपना उज्जवल हो
गौरवमय कल कभी रहा जो
उससे ज्यादा उज्जवल कल हो
पूरा हो
हर स्वप्न अधूरा
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
मंगलवार, 5 मई 2015
navgeet: jaisa boya -sanjiv
नवगीत:
जैसा बोया
संजीव
*
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुमने मेरा
मन तोड़ा था
सोता हुआ
मुझे छोड़ा था
जगी चेतना
अगर तुम्हारी
मुझे नहीं
क्यों झिंझोड़ा था?
सुत रोया
क्या कभी चुपाया?
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुम सोये
मैं रही जागती
क्या होता
यदि कभी भागती?
क्या तर पाती?
या मर जाती??
अच्छा लगता
यदि तड़पाती??
केवल खुद का
उठना भाया??
जैसा बोया
वैसा पाया
.
सात वचन
पाये झूठे थे.
मुझे तोड़
तुम भी टूटे थे.
अति बेमानी
जान सके जब
कहो नहीं क्यों
तुम लौटे थे??
खीर-सुजाता ने
भरमाया??
जैसा बोया
वैसा पाया
.
घर त्यागा
भिक्षा की खातिर?
भटके थे
शिक्षा की खातिर??
शिक्षा घर में भी
मिलती है-
नहीं बताते हैं
सच शातिर
मूरत गढ़
जग ने झुठलाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
मन मंदिर में
तुम्हीं विराजे
मूरत बना
बजाते बाजे
जो, वे ही
प्रतिमा को तोड़ें
उनका ढोंग
उन्हीं को साजे
मैंने दोनों में
दुःख पाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुम, शोभा की
वस्तु बने हो
कहो नहीं क्या
कर्म सने हो?
चित्र गुप्त
निर्मल रख पाये??
या विराग के
राग घने हो??
पूज रहा जग
मगर भुलाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
जैसा बोया
संजीव
*
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुमने मेरा
मन तोड़ा था
सोता हुआ
मुझे छोड़ा था
जगी चेतना
अगर तुम्हारी
मुझे नहीं
क्यों झिंझोड़ा था?
सुत रोया
क्या कभी चुपाया?
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुम सोये
मैं रही जागती
क्या होता
यदि कभी भागती?
क्या तर पाती?
या मर जाती??
अच्छा लगता
यदि तड़पाती??
केवल खुद का
उठना भाया??
जैसा बोया
वैसा पाया
.
सात वचन
पाये झूठे थे.
मुझे तोड़
तुम भी टूटे थे.
अति बेमानी
जान सके जब
कहो नहीं क्यों
तुम लौटे थे??
खीर-सुजाता ने
भरमाया??
जैसा बोया
वैसा पाया
.
घर त्यागा
भिक्षा की खातिर?
भटके थे
शिक्षा की खातिर??
शिक्षा घर में भी
मिलती है-
नहीं बताते हैं
सच शातिर
मूरत गढ़
जग ने झुठलाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
मन मंदिर में
तुम्हीं विराजे
मूरत बना
बजाते बाजे
जो, वे ही
प्रतिमा को तोड़ें
उनका ढोंग
उन्हीं को साजे
मैंने दोनों में
दुःख पाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुम, शोभा की
वस्तु बने हो
कहो नहीं क्या
कर्म सने हो?
चित्र गुप्त
निर्मल रख पाये??
या विराग के
राग घने हो??
पूज रहा जग
मगर भुलाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
muktika (hindi gazal): baat kar -sanjiv
मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल)
बात कर
संजीव
*

Photo by kevin dooley
निर्जीव को संजीव बनाने की बात कर
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर
‘भू माफ़िये’! भूचाल कहे, ‘मत ज़मीं दबा
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर’
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर’
‘आँखें मिलायें’ मौत से कहती है ज़िंदगी
आ मारने के बाद जलाने की बात कर
आ मारने के बाद जलाने की बात कर
तूने गिराये हैं मकां बाकी हैं हौंसले
कांटों के बीच फूल खिलाने की बात कर
कांटों के बीच फूल खिलाने की बात कर
हे नाथ पशुपति! रूठ मत तू नीलकंठ है
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर
पत्थर से कलेजे में रहे स्नेह ‘सलिल’ भी
आ वेदना से गंगा बहाने की बात कर
आ वेदना से गंगा बहाने की बात कर
नेपाल पालता रहा विश्वास हमेशा
चल इस धरा पे स्वर्ग बसाने की बात कर
चल इस धरा पे स्वर्ग बसाने की बात कर
muktika (hindi gazal) - sanjiv,
मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) :
चूक जाओ न
संजीव
*

Photo by Vincepal
चूक जाओ न, जीत जाने से
कुछ न पाओगे दिल दुखाने से
कुछ न पाओगे दिल दुखाने से
काश! ख़ामोश हो गये होते
रार बढ़ती रही बढ़ाने से
रार बढ़ती रही बढ़ाने से
बावफ़ा थे, न बेवफ़ा होते
बात बनती है, मिल बनाने से
बात बनती है, मिल बनाने से
घर की घर में रहे तो बेहतर है
कौन छोड़े हँसी उड़ाने से?
कौन छोड़े हँसी उड़ाने से?
ये सियासत है, गैर से बचना
आज़माओ न आज़माने से
आज़माओ न आज़माने से
जिसने तुमको चुना नहीं बेबस
आयेगा फिर न वो बुलाने से
आयेगा फिर न वो बुलाने से
घाव कैसा हो, भर ही जाता है
दूरियाँ मिटती हैं भुलाने से
दूरियाँ मिटती हैं भुलाने से
muktika (hindi gazal) - sanjiv
मुक्तिका:
बोलना था जब
संजीव

Photo by Real Cowboys Drive Cadillacs
बोलना था जब, तभी लब कुछ नहीं बोले
बोलना था जब नहीं, बेबात भी बोले
बोलना था जब नहीं, बेबात भी बोले
काग जैसे बोलते हरदम रहे नेता
ग़म यही कोयल सरीखे क्यों नहीं बोले?
ग़म यही कोयल सरीखे क्यों नहीं बोले?
परदेस की ध्वजा रहे फ़हरा अगर नादां
निज देश का झंडा उठा हम मिल नहीं बोले
निज देश का झंडा उठा हम मिल नहीं बोले
रिश्ते अबोले रिसते रहे बूँद-बूँद कर
प्रवचन सुने चुप सत्य, सुनकर झूठ क्या बोले?
प्रवचन सुने चुप सत्य, सुनकर झूठ क्या बोले?
बोलते बाहर रहे घर की सभी बातें
घर में रहे अपनों से अलग कुछ नहीं बोले
घर में रहे अपनों से अलग कुछ नहीं बोले
सरहद पे कटे शीश या छाती हुई छलनी
माँ की बचाई लाज, लाल चुप नहीं बोले
माँ की बचाई लाज, लाल चुप नहीं बोले
लेबल:
बोलना था जब,
मुक्तिका,
संजीव,
हिंदी ग़ज़ल,
bolna tha,
hindi gazal,
muktika,
sanjiv
dwipadika: sanjiv
द्विपदिका:
अपनी बात
संजीव
*

Photo by Taymaz Valley
पल दो पल का दर्द यहाँ है पल दो पल की खुशियाँ हैं
आभासी जीवन जीते हम नकली सारी दुनिया है
आभासी जीवन जीते हम नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग हाथ अंत में मलता है
खाता पीता सोता है जग हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर गैरों को गले लगाया है
तुमने अपना कहा मगर गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी साथ रास कब आता है
दूर न रह पाते पल भर भी साथ रास कब आता है
नोंक-झोंक, खींचा-तानी ही मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी जीवन में रंग भरती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें न रोएँ हमको तो मुस्काना हैलम्बी डगर
लेकिन जब तक रहें न रोएँ हमको तो मुस्काना हैलम्बी डगर
*
navgeet: - sanjiv
नवगीत:
बाँस बना ताज़ा अखबार
संजीव,

Photo by seanmcgrath
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार,
ताज़ा अखबार,
फाँसी लगा किसान ने
ख़बर बनाई खूब,
पत्रकार नेता गए
चर्चाओं में डूब,
जानेवाला गया है
उनको तनिक न रंज
क्षुद्र स्वार्थ हित कर रहे
जो औरों पर तंज़,
ले किसान से सेठ को
दे ज़मीन सरकार
क्यों नादिर सा कर रही
जन पर अत्याचार?
बिना शुबह बाँस तना
जन का हथियार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार,
ख़बर बनाई खूब,
पत्रकार नेता गए
चर्चाओं में डूब,
जानेवाला गया है
उनको तनिक न रंज
क्षुद्र स्वार्थ हित कर रहे
जो औरों पर तंज़,
ले किसान से सेठ को
दे ज़मीन सरकार
क्यों नादिर सा कर रही
जन पर अत्याचार?
बिना शुबह बाँस तना
जन का हथियार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार,
भूमि गँवाकर डूब में
गाँव हुआ असहाय,
चिंता तनिक न शहर को
टंसुए श्रमिक बहाय,
वनवासी से वन छिना
विवश उठे हथियार
आतंकी कह भूनतीं
बंदूकें हर बार,
‘ससुरों की ठठरी बँधे’
कोसे बाँस उदास
पछुआ चुप पछता रही
कोयल चुप है खाँस
करता पर कहता नहीं
बाँस कभी उपकार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार|
गाँव हुआ असहाय,
चिंता तनिक न शहर को
टंसुए श्रमिक बहाय,
वनवासी से वन छिना
विवश उठे हथियार
आतंकी कह भूनतीं
बंदूकें हर बार,
‘ससुरों की ठठरी बँधे’
कोसे बाँस उदास
पछुआ चुप पछता रही
कोयल चुप है खाँस
करता पर कहता नहीं
बाँस कभी उपकार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार|
*
navgeet: apanon par -sanjiv,
नवगीत:
अपनों पर
संजीव

Photo by tonymitra
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
साये से भय खाते लोग
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
उसने पाया था बहुमत
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
सत्य, झूठ को बतलाते
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
वह हलाहल रहा पीता
बिना बाज़ी लड़े जीता
हो वैरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
बिना बाज़ी लड़े जीता
हो वैरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें,
कोई टोक न पाया
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें|
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें|
*
लेबल:
अपनों पर,
नवगीत,
नेताजी,
संजीव,
सुभाष चन्द्र बोस,
apanon par,
navgeet,
netaji,
sanjiv,
subhash chnadra bose
rashtreey muktak: -sanjiv
मुक्तक:
हम एक हों
संजीव, राष्ट्रीय, भारत,

Photo by kannanokannan
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके
नित प्रात हो हम साथ हों नत माथ हो जगवन्दिते,
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोई भी दुखी|
नित प्रात हो हम साथ हों नत माथ हो जगवन्दिते,
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोई भी दुखी|
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:,
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों ज़िन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें|
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:,
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों ज़िन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें|
तज दें सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो,
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों|
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो,
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों|
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा,
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होकर गा सकें|
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा,
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होकर गा सकें|
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
navgeet: dharti ki chati fati -sanjiv
नवगीत:
धरती की छाती फटी
संजीव
*

Photo by martinluff
धरती की छाती फटी
फैला हाहाकार
फैला हाहाकार
पर्वत, घाटी या मैदान
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणा सागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फटी
फैला हाहाकार
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणा सागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फटी
फैला हाहाकार
कभी नहीं मारे भूकंप
कभी नहीं हारे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति अनुकूल जीओ
मात्र एक उपचार
कभी नहीं हारे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति अनुकूल जीओ
मात्र एक उपचार
नींव कूटकर खूब भरो
हर कोना मज़बूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलाता अफ़वाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फटी
फैला हाहाकार
हर कोना मज़बूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलाता अफ़वाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फटी
फैला हाहाकार
बिजली-अग्नि बुझाओ तुरंत
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमज़ोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फटी
फैला हाहाकार
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमज़ोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फटी
फैला हाहाकार
*
लेबल:
धरती की छाती फटी,
नवगीत,
संजीव,
dharti ki chati fati,
navgeet,
sanjiv
nav geet: pashupati nath tumahare rahte -sanjiv
नवगीत:
पशुपतिनाथ! तुम्हारे रहते
संजीव
*

Photo by Hey Paul
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
वसुधा मैया भईं कुपित
डोल गईं चट्टानें
किसमें बूता
धरती कब
काँपेगी अनुमाने?
देख-देख भूडोल
चकित क्यों?
सीखें रहना साथ,
अनसमझा भूकम्प न हो अब
मानवता का काल
पृथ्वी पर भूचाल,
हुए, हो रहे, सदा होएंगे
हम जीना सीखेंगे या
हो नष्ट बिलख रोएँगे?
जीवन शैली गलत हमारी
करे प्रकृति से बैर
रहें सुरक्षित पशु-पक्षी, तरु
नहीं हमारी खैर,
जैसी करनी
वैसी भरनी
फूट रहा है माथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
डोल गईं चट्टानें
किसमें बूता
धरती कब
काँपेगी अनुमाने?
देख-देख भूडोल
चकित क्यों?
सीखें रहना साथ,
अनसमझा भूकम्प न हो अब
मानवता का काल
पृथ्वी पर भूचाल,
हुए, हो रहे, सदा होएंगे
हम जीना सीखेंगे या
हो नष्ट बिलख रोएँगे?
जीवन शैली गलत हमारी
करे प्रकृति से बैर
रहें सुरक्षित पशु-पक्षी, तरु
नहीं हमारी खैर,
जैसी करनी
वैसी भरनी
फूट रहा है माथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
टैक्टानिक हलचल को समझें
हटें-मिलें भू-प्लेटें
ऊर्जा विपुल
मुक्त हो फैले
भवन तोड़, भू मेटें,
रहे लचीला
तरु न टूटे
अड़ियल भवन चटकता,
नींव न जो
मज़बूत रखे
वह जीवन-शैली खोती
उठी अकेली जो
ऊँची मीनार
भग्न हो रोती,
वन हरिया दें, रुके भूस्खलन
कम हो तभी विनाश,
बंधन हो मज़बूत, न ढीले
रहें हमारे पाश,
छूट न पायें
कसकर थामें
‘सलिल’ हाथ में हाथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
हटें-मिलें भू-प्लेटें
ऊर्जा विपुल
मुक्त हो फैले
भवन तोड़, भू मेटें,
रहे लचीला
तरु न टूटे
अड़ियल भवन चटकता,
नींव न जो
मज़बूत रखे
वह जीवन-शैली खोती
उठी अकेली जो
ऊँची मीनार
भग्न हो रोती,
वन हरिया दें, रुके भूस्खलन
कम हो तभी विनाश,
बंधन हो मज़बूत, न ढीले
रहें हमारे पाश,
छूट न पायें
कसकर थामें
‘सलिल’ हाथ में हाथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
doha : sanjiv
दोहा दुनिया:
अंतर में अंतर
संजीव
*

Photo by Miss Stella
अंतर में अंतर पले, तब कैसे हो स्नेह
अंतर से अंतर मिटे, तब हो देह विदेह
अंतर = मन / भेद
अंतर से अंतर मिटे, तब हो देह विदेह
अंतर = मन / भेद
देख रहे छिप-छिप कली, मन में जागी प्रीत
देख छिपकली वितृष्णा, क्यों हो छू भयभीत?
छिप कली = आड़ से रूपसी को देखना / एक जंतु
देख छिपकली वितृष्णा, क्यों हो छू भयभीत?
छिप कली = आड़ से रूपसी को देखना / एक जंतु
मूल्य बढ़े जीना हुआ, अब सचमुच दुश्वार
मूल्य गिरे जीना हुआ, अब सचमुच दुश्वार
मूल्य = कीमत, जीवन के मानक
मूल्य गिरे जीना हुआ, अब सचमुच दुश्वार
मूल्य = कीमत, जीवन के मानक
आंचल से आंचल ढँकें, बची रह सके लाज
अंजन का अंजन करें, नैन बसें सरताज
आंचल = दामन / भाग या हिस्सा, अंजन = काजल, आँख में लगाना
अंजन का अंजन करें, नैन बसें सरताज
आंचल = दामन / भाग या हिस्सा, अंजन = काजल, आँख में लगाना
दिनकर तिमिर अँजोरता, फैले दिव्य प्रकाश
संध्या दिया अँजोरता, महल- कुटी में काश
अँजोरता = समेटता या हर्ता, जलाता या बालता
संध्या दिया अँजोरता, महल- कुटी में काश
अँजोरता = समेटता या हर्ता, जलाता या बालता
muktika: aap se aap -sanjiv
मुक्तिका:
आप से आप ही
संजीव
*

Photo by DBduo Photography
आप से आप ही टकरा रहा है
आप ही आप जी घबरा रहा है
आप ही आप जी घबरा रहा है
धूप ने छाँव से कर दी बगावत
चाँद से सूर्य क्यों घबरा रहा है?
चाँद से सूर्य क्यों घबरा रहा है?
क्यों फ़ना हो रहा विश्वास कहिए?
दुपहरी में अँधेरा छा रहा है
दुपहरी में अँधेरा छा रहा है
लोक को था भरोसा हाय जिन पर
लोक उनसे ही धोखा खा रहा है
लोक उनसे ही धोखा खा रहा है
फ़िज़ाओं में घुली है गुनगुनाहट
ख़त्म वनवास होता जा रहा है
ख़त्म वनवास होता जा रहा है
हाथ में हाथ लेकर जो चले थे
उन्हीं का हाथ छूटा जा रहा है
उन्हीं का हाथ छूटा जा रहा है
बुहारू ले बुहारो आप आँगन
स्वार्थ कचरा बहुत बिखरा रहा है
स्वार्थ कचरा बहुत बिखरा रहा है
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