अम्ब विमल मति दे
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....
बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....
कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
वह बल-विक्रम दे.....
हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....
नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
' सलिल' विमल प्रवहे.....
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शनिवार, 17 जनवरी 2009
गीत सलिला
समय - समय की बात
कभी तीर पर, कभी धार में,
समय - समय की बात...
बिन मजबूरी करें अहर्निश,
चुप रहकर बेगार,
सूर्य-चन्द्र जैसा जन-गण तो-
क्यों सुधरे सरकार?
यहाँ पूर्णिमा-वहाँ अमावस
दोनों की है मात...
गति, यति, पिंगल, लय बिन
कविता बिना गंध का फूल।
नियम व्याकरण की पंखुडियाँ,
सिर्फ़ शब्द हैं चुभते शूल।
सत-शिव-सुंदर मूल्य समाहित
रचना नव्य प्रभात ...
जनमत भुला मांगते जन-मत,
नेता बने भिखारी।
रिश्वत लेते रहे नगद पर-
वादे करें उधारी।
नेता, अफसर, व्यापारी ने
नष्ट किए ज़ज्बात...
नहीं सभ्यता और संस्कृति के
प्रति किंचित प्यार।
देश सनातन हाय! बन
गयाअब विशाल बाज़ार।
आग लगाये जो उसको ही
पाल रहे हैं तात...
कोई किसी का मीत नहीं,
यह कैसी बेढब रीत?
कागा के स्वर में गाती क्यों
कोयल बेसुर गीत?
महाराष्ट्र का राज राष्ट्र से-
'सलिल' करे क्यों घात?...
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समय - समय की बात
कभी तीर पर, कभी धार में,
समय - समय की बात...
बिन मजबूरी करें अहर्निश,
चुप रहकर बेगार,
सूर्य-चन्द्र जैसा जन-गण तो-
क्यों सुधरे सरकार?
यहाँ पूर्णिमा-वहाँ अमावस
दोनों की है मात...
गति, यति, पिंगल, लय बिन
कविता बिना गंध का फूल।
नियम व्याकरण की पंखुडियाँ,
सिर्फ़ शब्द हैं चुभते शूल।
सत-शिव-सुंदर मूल्य समाहित
रचना नव्य प्रभात ...
जनमत भुला मांगते जन-मत,
नेता बने भिखारी।
रिश्वत लेते रहे नगद पर-
वादे करें उधारी।
नेता, अफसर, व्यापारी ने
नष्ट किए ज़ज्बात...
नहीं सभ्यता और संस्कृति के
प्रति किंचित प्यार।
देश सनातन हाय! बन
गयाअब विशाल बाज़ार।
आग लगाये जो उसको ही
पाल रहे हैं तात...
कोई किसी का मीत नहीं,
यह कैसी बेढब रीत?
कागा के स्वर में गाती क्यों
कोयल बेसुर गीत?
महाराष्ट्र का राज राष्ट्र से-
'सलिल' करे क्यों घात?...
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शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
गीत सलिला
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संसद थाना जा पछताना....
संसद थाना
जा पछताना....
जागा चोर
सिपाही सोया
पाया थोड़ा
ज्यादा खोया
आजादी है
कर मनमाना...
जो कुर्सी पर
बैठा, एंठा
ताश समझ
जनता को फेंटा
सच्चों को
झूठा बतलाना...
न्याय तराजू
थामे अँधा
काले कोट
कर रहे धंधा
सह अन्याय
न तू चिल्लाना...
बटमारों के
हाथ प्रशासन
लोकतंत्र है
महज दुशासन
रिश्वत नित
मनमाना खाना...
डंडा-पंडा
झंडी-झंडा
शाकाहारी कह
खा अंडा
प्रभु को दिखा
भोग ख़ुद पाना...
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