नवगीत:
हवा में ठंडक
संजीव 'सलिल'
हवा में ठंडक बहुत है
काँपता है गात सारा
ठिठुरता सूरज बिचारा
ओस-पाला
नाचते हैं-
हौसलों को आँकते हैं
युवा में खुंदक बहुत है
गर्मजोशी चुक न पाए,
पग उठा जो रुक न पाए
शेष चिंगारी
अभी भी-
ज्वलित अग्यारी अभी भी
दुआ दुःख-भंजक बहुत है
हवा बर्फीली-विषैली,
नफरतों के साथ फैली
भेद मत के
सह सकें हँस-
एक मन हो रह सकें हँस
स्नेह सुख-वर्धक बहुत है
चिमनियों का धुँआ गंदा
सियासत है स्वार्थ-फंदा
उठो! जन-गण
को जगाएँ-
सृजन की डफली बजाएँ
चुनौती घातक बहुत है
नियामक हम आत्म के हों,
उपासक परमात्म के हों.
कोहरा
भास्कर प्रखर हों-
मौन में वाणी मुखर हों
साधना ऊष्मक बहुत है
-- संजीव सलिल
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मनोज कुमार said...
जवाब देंहटाएंग़ज़ब का सौंदर्य है इस रचना में। बेहतरीन। लाजवाब।
January 9, 2010 6:14 AM
niyati said...
बहुत खूब....मजा आ गया...
January 10, 2010 4:32 AM
sharda monga (aroma) said...
bahut sunder hai.
January 10, 2010 10:43 AM
कटारे said...
बहुत सुन्दर नवगीत के लिये सलिल जी को धन्यबाद ।नवगीतकार पं, गिरिमोहन गुरु ने कुछ इस प्रकार टिप्पणी की,,,,,
पढा गीत संजीव का जैसे सलिल प्रवाह।
नेह नर्मदा सा दिखा मुख से निकली वाह।।
January 11, 2010 6:16 AM
rachana said...
bahut sunder likha hai hamesha ki tarah
saader
rachana
January 11, 2010 6:21 AM
mandalss said...
Ek sundar satik v bebakee se sachhaee ko abhivayakt kartee rachana .Salilji ko sahit team navgeet sadhuvad
January 12, 2010 9:25 PM
suruchi said...
बढ़िया संजीव जी, निर्मला जी की तरह आप भी पाठशाला की रौनक हैं। आजकल संजीव गौतम नहीं लिख रहे हैं गौतम राजरिशी भी कहीं व्यस्त मालूम होते हैं.. मुक्ता पाठक एक थीं अच्छा लिख रही थी वे भी नहीं हैं पिछली कुछ कार्यशालाओं से...
January 13, 2010 4:49 AM
वाह!! एक बेहद सुन्दर गीत. आनन्द आ गया आचार्य जी.
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