मुक्तिका:
धूप सुबह की
संजीव 'सलिल'
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धूप सुबह की, चाय की प्याली, चश्मा थामे हाथ.
पापाजी अख़बार लिये, नत झुर्रीवाला माथ..
माँ जी ऐ जी, ओ जी कहकर जब देतीं आवाज़.
चेहरे पर मुस्कान लिए दो नयन झाँकते साथ..
पच्चासी की उमर बिना जल करतीं करवा चौथ.
माँ दे अरघ तोड़तीं व्रत, सम्मुख पाकर निज नाथ..
मार समय की चूल्हे सिगड़ी संग गुमे कंदील.
अब न खनकती चूड़ी कोई हँसती कंडे पाथ..
जब थे तब मालूम नहीं था खो होंगे बेचैन.
माँ-पापा बिन 'सलिल' रह गया होकर हाय अनाथ..
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