नवगीत
प्लेटफॉर्म सा...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
प्लेटफॉर्म सा
फैला जीवन...
कभी मुखर है,
कभी मौन है।
कभी बताता,
कभी पूछता,
पंथ कौन है?
पथिक कौन है?
स्वच्छ कभी-
है मैला जीवन...
कभी माँगता,
कभी बाँटता।
पकड़-छुडाता
गिरा-उठाता।
बिन सिलाई का
थैला जीवन...
वेणु श्वास,
राधिका आस है।
कहीं तृप्ति है,
कहीं प्यास है।
तन मजनू,
मन लैला जीवन...
बहा पसीना,
भूखा सोये।
जग को हँसा ,
स्वयं छुप रोये।
नित सपनों की
फसलें बोए।
पनघट, बाखर,
बैला जीवन...
यही खुदा है,
यह बन्दा है।
अनसुलझा
गोरखधंधा है।
काँटे देख
नींद से जागे।
हूटर सुने,
छोड़ जां भागे।
रोजी का है
छैला जीवन...
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प्लेटफार्म सा फैला जीवन.....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना . आभार.
हूटर सुने,
जवाब देंहटाएंछोड़ जां भागे।
रोजी का है
छैला जीवन...
--गजब, सलिल जी!! बहुत उम्दा भाव उकेरे हैं. बधाई.
आदरणीय आचार्य जी,
जवाब देंहटाएंगीतों का माधुर्य याद दिलाता गीत नव-गीत।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी