गुरुवार, 21 मई 2009

नवगीत प्लेटफॉर्म सा... संजीव वर्मा 'सलिल'

नवगीत
प्लेटफॉर्म सा...                                                                        
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
प्लेटफॉर्म सा
फैला जीवन...
कभी मुखर है,
कभी मौन है।
कभी बताता,
कभी पूछता,
पंथ कौन है?
पथिक कौन है?
स्वच्छ कभी-
है मैला जीवन...
कभी माँगता,
कभी बाँटता।
पकड़-छुडाता
गिरा-उठाता।
बिन सिलाई का
थैला जीवन...
वेणु श्वास,
राधिका आस है।
कहीं तृप्ति है,
कहीं प्यास है।
तन मजनू,
मन लैला जीवन...
बहा पसीना,
भूखा सोये।
जग को हँसा ,
स्वयं छुप रोये।
नित सपनों की
फसलें बोए।
पनघट, बाखर,
बैला जीवन...
यही खुदा है,
यह बन्दा है।
अनसुलझा
गोरखधंधा है।
काँटे देख
नींद से जागे।
हूटर सुने,
छोड़ जां भागे।
रोजी का है
छैला जीवन...
*****

3 टिप्‍पणियां:

  1. प्लेटफार्म सा फैला जीवन.....
    बहुत बढ़िया रचना . आभार.

    जवाब देंहटाएं
  2. हूटर सुने,

    छोड़ जां भागे।

    रोजी का है

    छैला जीवन...


    --गजब, सलिल जी!! बहुत उम्दा भाव उकेरे हैं. बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय आचार्य जी,

    गीतों का माधुर्य याद दिलाता गीत नव-गीत।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

    जवाब देंहटाएं