नव गीत-
आचार्य संजीव 'सलिल',
दिन भर मेहनत
आंतें खाली,
कैसे देखें सपना?...
दाने खोज,
खीजता चूहा।
बुझा हुआ है चूल्हा।
अरमां की
बरात सजी-
पर गुमा
सफलता दूल्हा।
कौन बताये
इस दुनिया का
कैसा बेढब नपना ?...
कौन जलाये
संझा-बाती
गयी माँजने
बर्तन।
दे उधार,
देखे उभार
कलमुंहा सेठ
ढकती तन।
नयन गडा
धरती में
काटे मौन
रास्ता अपना...
ग्वाल-बाल
पत्ते खेलें
बलदाऊ
चिलम चढाएं।
जेब काटता
कान्हा-राधा
छिप बीडी
सुलगाये।
पानी मिला
दूध में जसुमति
बिसरी माला जपना...
बैठ मुंडेरे
बोले कागा
झूठी आस
बंधाये।
निठुर न आया,
राह देखते
नैना हैं
पथराये।
ईंटों के
भट्टे में
मानुस बेबस
पड़ता खपना...
श्यामल 'मावस
उजली पूनम,
दोनों बदलें
करवट।
साँझ-उषा की
गैल ताकते
सूरज-चंदा
नटखट।
किसे सुनाएँ
व्यथा-कथा
घर की
घर में
चुप ढकना...
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सच्चा और अच्छा गीत है।
जवाब देंहटाएंशब्द पुष्टिकरण हटाएँ।
बहुत बढ़िया रचना . आभार
जवाब देंहटाएंआपने तो कई साड़ी बातें कह दी अपनी इस रचना में ...खूबसूरती इसे ही तो कहते हैं
जवाब देंहटाएंब्लॉग जगत में और चिठ्ठी चर्चा में आपका स्वागत है . आज आपके ब्लॉग की चर्चा समयचक्र में ..
जवाब देंहटाएंkhubsurat rachna ke liye badhaai.
जवाब देंहटाएंapki post ki charcha sirf mere blaag me
जवाब देंहटाएंसमयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : जो पैरो में पहिनने की चीज थी अब आन बान और शान की प्रतीक मानी जाने लगी है
कितनी सही सटीक विवेचना की है आपने......अद्वितीय रचना...बहुत बहुत सुन्दर !! शब्द भाव सीधे ह्रदय भूमि पर आ आकर जम जाते हैं...वाह !!
जवाब देंहटाएंआप सभी को उत्साह बढ़ने के लिया धन्यवाद. - सलिल
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