: मुक्तिका :
मन का इकतारा
संजीव 'सलिल'
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मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
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सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
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जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
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मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
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जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
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जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
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सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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सब मे रब या रब में सब को जब देखा
जवाब देंहटाएंदेश धर्म भाषा का अंतर ढहता है
समभाव शायद इसी को कहते हैं
बहुत सुन्दर
अति सुन्दर!!
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत बढ़िया !!
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंसलिल जी ! कृपया आज शाम यहाँ एक नजर देख लें - http://shikhakriti.blogspot.com