गुरुवार, 17 जून 2010

गीत: तो चलूँ …… संजीव 'सलिल'















गीत:
तो चलूँ ……
संजीव 'सलिल'
*

जिसकी यादों में 'सलिल', खोया सुबहो-शाम.
कण-कण में वह दीखता, मुझको आठों याम..
*
दूरियाँ उससे जो मेरी हैं, मिटा लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
मैं तो साया हूँ, मेरा ज़िक्र भी कोई क्यों करे.
जब भी ले नाम मेरा, उसका ही जग नाम वरे..
बाग़ में फूल नया, कोई खिला लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……

ईश अम्बर का वो, वसुधा का सलिल हूँ मैं तो
जहाँ जो कुछ है वही है, नहीं कुछ हूँ मैं तो..
बनूँ गुमनाम, मिला नाम भुला लूँ तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……

वही वो शेष रहे, नाम न मेरा हो कहीं.
यही अंतिम हो 'सलिल', अब तो न फेरा हो कहीं..
नेह का गेह तजे देह, विदा दो तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……

****************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम/ सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

6 टिप्‍पणियां:

  1. यही तो अन्तिम लक्ष्य है……………बहुत ही सुन्दर्।

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  2. आखिरी पंक्तियाँ लाजबाब हैं .बहुत सुन्दर.

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  3. बहुत सुन्दर!
    घुघूती बासूती

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  4. श्रद्धेय आचार्यश्री ,
    सादर प्रणाम !
    गीत: तो चलूं… पढ़ कर आनन्दविभोर हो गया ।

    इस भागमभाग भरे जीवन में हम जगन्नियंता परमात्मा को याद करना भूल जाते हैं ,
    जबकि आराध्य का स्मरण मात्र सुख का कारक होता है ।
    आपकी इस अति मनोरम आध्यात्मिक रचना ने यह सौभाग्य - सुअवसर दिया ।
    पूरी रचना आत्मिक आह्लाद बढ़ाने वाली है ।
    वही वो शेष रहे, नाम न मेरा हो कहीं
    इन भावों का ही तो अनुगामी हूं स्वयं मैं भी !

    नेह का गह तजे देह, विदा दो तो चलूं
    …लेकिन इस पंक्ति को पढ़ कर बहुत भावुक हो उठा हूं …

    मुझे और मेरे बाद की पीढ़ियों को आपसे चिरकाल तक प्रेरणा मिलती रहे !
    आपसे पीढ़ियां आशीर्वाद , मार्गदर्शन , सुझाव मांगे ,
    और उन्हें कभी नैराश्य का सामना न करना पड़े … बस !
    शत शत वंदन स्वीकार करें …
    आपका
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  5. दीप तू, तेल शिखा, ज्योति उजाला तू ही.
    वंदना-रंजना तू, शस्वरं बासूती तू ही..
    दीन का बंधु है तू, कंठ लगा लूँ तो चलूँ.
    उसमें बस जाऊं उसे दिल में बसा लूँ तो चलूँ...
    *

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