गीत
संजीव 'सलिल'
निर्झर सम
निर्बंध बहो,
सत नारायण
कथा कहो...
जब से
उजडे हैं पनघट.
तब से
गाँव हुए मरघट.
चौपालों में
हँसो-अहो...
पायल-चूड़ी
बजने दो.
नाथ-बिंदी भी
सजने दो.
पीर छिपा-
सुख बाँट गहो...
अमराई
सुनसान न हो.
कुँए-खेत
वीरान न हो.
धूप-छाँव
मिल 'सलिल' सहो...
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M VERMA :
जवाब देंहटाएंजब से
उजडे हैं पनघट.
तब से
गाँव हुए मरघट.
यथार्थ चित्रण और खूबसूरती से कही ग्रामीण परिवेश की व्यथा कथा.
बहुत सुन्दर
ह्रदय पुष्प :
वर्मा जी ने जो कहा मुझे भी उसी ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया साथ ही आचार्य जी का ये सन्देश:
धूप-छाँव
मिल 'सलिल' सहो...
धन्यवाद्
बहुत सुन्दर रचना
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