रविवार, 31 जनवरी 2010

गीत: निर्झर सम / निर्बंध बहो संजीव 'सलिल'

गीत

संजीव 'सलिल'

निर्झर सम
निर्बंध बहो,
सत नारायण
कथा कहो...
जब से
उजडे हैं पनघट.
तब से
गाँव हुए मरघट.
चौपालों में
हँसो-अहो...
पायल-चूड़ी
बजने दो.
नाथ-बिंदी भी
सजने दो.
पीर छिपा-
सुख बाँट गहो...
अमराई
सुनसान न हो.
कुँए-खेत
वीरान न हो.
धूप-छाँव
मिल 'सलिल' सहो...
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2 टिप्‍पणियां:

  1. M VERMA :

    जब से
    उजडे हैं पनघट.
    तब से
    गाँव हुए मरघट.

    यथार्थ चित्रण और खूबसूरती से कही ग्रामीण परिवेश की व्यथा कथा.
    बहुत सुन्दर


    ह्रदय पुष्प :

    वर्मा जी ने जो कहा मुझे भी उसी ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया साथ ही आचार्य जी का ये सन्देश:
    धूप-छाँव
    मिल 'सलिल' सहो...
    धन्यवाद्

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