मंगलवार, 5 मई 2015

navgeet: dhaee aakahr -sanjiv,

नवगीत:
ढाई आखर
संजीव 
*
जिन्स बना 
बिक रहा आजकल 
ढाई आखर।। 
.
दाँत दूध के टूट न पाये
पर वयस्क हैं।  
नहीं सुंदरी नर्स इसलिए
अनमयस्क हैं। 
चूस रहे अंगूठा लेकिन
आँख मारते-
बाल भारती पढ़ न सकें 
डेटिंग परस्त हैं। 
हर उद्यान
काम-क्रीड़ा हित
इनको बाखर। 
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर।। 
.
मकरध्वज घुट्टी में शायद
गयी पिलायी। 
वात्स्यायन की खोज
गर्भ में गयी सुनायी। 
मान देह को माटी; माटी से
मिलते हैं-
कीचड़ किया, न शतदल कलिका
गयी खिलायी। 
मन अनजाना
केवल तन; इनको 
जलसाघर। 
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर। 
.
रिश्ते-नाते वस्त्र सरीखे 
रोज बदलते।  
कहें देह संपत्ति 
पंक में कूद फिसलते।  
माता-पिता बोझ अनचाहा 
छूटे पीछा- 
मिले विरासत में दौलत;  
कर्तव्य न रुचते।  
खोज रहे हैं
साथी; साथी 
बदल-बदलकर। 
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर। 
.


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