बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

नवगीत: रंगों का नव पर्व बसंती ---संजीव सलिल

रंगों का नव पर्व बसंती

रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

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3 टिप्‍पणियां:

  1. hameshaa ki tarah sundar geet. sachmuch ab ek abhijaty varg paida ho raha hai, jo holi jaise tyoharo ko pasand hi nahi karta. aapne us par chinta jatai hai. is visangati par koi salil hi muska sakataa hai.

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  2. आचार्य जी, बहुत सुन्दर सशक्त गीत है. बधाई.

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