गीत
अपनेपन का अर्पित,
अपनों को मान-पान...
गिरते हम, उठते हम।
रुकते हम, चलते हम।
बाधा से तनिक नहीं
डरते हम। थमते हम.
पैर जमा धरती
पर- छू लेंगे आसमान...
हार नहीं मानेंगे
तम् से रार ठानेंगे।
अक्षौहिणी तुम ले लो,
मात्र कृष्ण मांगेंगे।
पाञ्चजन्य फूंकेंगे,
होंगे हम भासमान...
कर्म-कथा कहते हैं,
मर्म-व्यथा सुनते हैं।
पर्वत के पत्थर से-
रेवा सम बहते हैं।
लहर-लहर, भंवर-भंवर
ऊगेंगे शत विहान...
दस दिश में गूंजेंगे,
नए मूल्य पूजेंगे।
संकट के समाधान
युक्ति लगा बूझेंगे।
मेहनती-प्रयासी ही
भाई-बंधु, खानदान...
ऊषा की लाली हम,
दोपहरी प्याली हम।
संध्या की मुसकाहट,
निशा नवल काली हम।
दस दिश में गूंजेंगे-
सरगम-सुर, ताल-तान...
मन्दिर में शंख-नाद
मस्जिद में हम अजान।
कंकर हम, शंकर हम,
विधि-हरि-हर अक्षर हम।
अजर-अमर, अटल-अगम।
कदमों के हम निशान...
शेष नाग फुफकारें।
तूफां बन हुंकारें।
मधुवन के मधुकर हम,
कलियों पर गुन्जारें।
अमिय-गरल हैं हमको-
सत्य कहें प्रिय सामान...
आ जाओ, लगो गले।
मिल पायें भले गले।
दगा दगा को देन हम-
हर विपदा हाथ मले-
हृदयों के कमल खिले
मन का मन करे मान...
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शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
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ओजपूर्ण प्रेरणादायी अतिसुन्दर रचना...वाह !!
जवाब देंहटाएंओज और माधुर्य के संगम से सिक्त इस रचना के लिए बधाई।
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