रविवार, 5 फ़रवरी 2012

गीत: गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा... संजीव 'सलिल'

गीत:
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
संजीव 'सलिल'
*
मार समय की सहें मूक हो, कोई न तेरा-मेरा.
पीर, वेदना, तन्हाई निश-दिन करती पग-फेरा..
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
*
तुमने वन-पर्वत खोये, मैंने खोया सुख-चैन.
दर्द तुम्हारे दिल में है, मेरे भी भीगे नैन..
लोभ-हवस में झुलसा है, हम दोनों का ही डेरा.
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
*
शकुनि सियासत के हाथों हम दोनों हारे दाँव.
हाथ तुम्हारे घायल हैं, मेरे हैं चोटिल पाँव..
जीना दूभर, नेता अफसर व्यापारी ने घेरा.
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
*
तुमने चौपालों को खोया, मैंने नुक्कड़ खोये.
पनघट वहाँ सिसकते, गलियाँ यहाँ बिलखकर रोये..
वहाँ अमन का, यहाँ चैन का बाकी नहीं बसेरा.
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
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तुम्हें तरसता देख जुटायी मैंने रोजी-रोटी. 
चिपक गया है पेट पीठ से, गिन लो बोटी-बोटी..
खोटी-खोटी सुना रहे क्यों नहीं प्यार से हेरा?
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
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ले विकास का नाम हर तरफ लूट-पाट है जारी.
बैठ शाख पर चला रहा शाखा पर मानव आरी..
सिसके शाम वहाँ, रोता है मेरे यहाँ सवेरा.
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
*

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